पौरुषता हरियाली का नाम ही किसानी थी l
आज मैं बूढ़ा बैल हूँ कभी जवानी थी ll
निर्धनता घर में थी श्रम से उसे उबार दिया।
जोतकर जटिल बंजरों का भी श्रृंगार किया।
बहुत सुन्दर सुडौल और बोलबाला था।
बड़े संयम से मैंने शक्ति को सम्भाला था।
मेरी मेहनत से ही गृहस्थी में रवानी थी।।
आज०
घर के बच्चे भी सम्मान बहुत करते थे।
पास आते थे संकोच में कुछ डरते थे।
हरे चारे के साथ दाना गरी मिलती थी।
स्वच्छ जल से मेरी नॉंद भरी रहती थी।
दूर तक मेरी उपस्थिति भी तो पहचानी थी।।
आज०
समय का फेर है बुढ़ापा मुझे आने लगा।
मेरा सम्मान मेरे घर में डगमगाने लगा।
भूख और प्यास तक तो सह लिया आसानी से।
कष्ट असह्य हुआ मुझको मानहानी से।
मेरी मेहनत की क्या यही सही निशानी थी।।
आज०
जवानी जब थी तो हजार खरीदार रहे।
कौन पूछेगा उसे जो बूढ़ा बीमार रहे।
यांत्रिकी पर हुआ यकीन नये लोगों में।
ज़िन्दगी गवां रहे स्वार्थ भरे भोगों में।।
ज्ञान का दीप बुझा शेष यह कहानी थी।।
आज०