आई थी बहार साखों पर,कली कली मुस्काई थी,
हरे रंग की चादर ओढ़ के,पात_पात इतराई थी
ओस की बूंदे गिरी पातों पर,तरु की सोभा बढ़ाई थी,
मोती के जैसी ओस बिखरी,मानो तारों ने सभा सजाई थी,
मंद मंद सुगंध उड़ाती कर,चली पवन पुरवाई थी।
लख के तरु के रूप को,प्रकृति बड़ी हर्षाई थी,
पुष्प से लदे हुए तरु ने,उपमा अंगिनित पाई थी,
जब सुख में दिन गुजर गए,दुख ने ली अंगड़ाई थी
गुजर गए दिन खुशियों के,दुख की बदली छाई थी
जैसे सूरज अस्त होने पर,तम ने बाहें फैलाई थी।।
फिर आया पतझड़ का मौसम,पात पात उदास हुआ,
परिवर्तन को जिसने स्वीकारा,उसका जीवन आसान हुआ,
तरु ने खोए अपने पल्लव,उसका हाल बेहाल हुआ,
पुरातन पात टूट गए,तब नव पल्लव का निर्माण हुआ
जो कभी शिखर पर रहते थे,खुद को श्रेष्ठ जो कहते थे,
वो पात टूट के गिरे पड़े है,जिन्हें मानव पग से कुचले है
जीवन का सार यही है,कुछ खोना है कुछ पाना है,
दुख नही ठहरा कुछ देर,सुख का भी नही ठिकाना है।
इस दुख दुख के मध्य में,हम सारा जीवन गंवाते हैं,
जीवन भर हासिल करते,कुछ न हासिल कर पाते है
कहां समय रुकता है बोलो,सूरज को ढालना होता है,
पीड़ा के पतझड़ के बाद,नव पल्लव का सृजन होताहै
ये वो सत्य है जिसको,कभी मनुज नहीं समझता है,
छल द्वेष ईर्ष्या के अग्नि में,संपूर्ण उम्र भर तपता है।।