हे प्रेम ! की बहती हवाओं सुनों
मैं हूंँ नही कोई निरोगी
मुझे बचालो उसके कदमों से
अब मैं हूंँ एक गुलाम प्रेम रोगी ।
अब खो रहा है धैर्य हमारा
मन ,अंग में भीषण विद्रोह है
सिसक रही है अंतरात्मा
अपने जान से कोई न नेह है
अब चाहे उसपर जान लुटाएं
या खुद से नर्क जीवन जीएं
मरकर भी चैन न आएगा
इस जाल से कैसे निकल जाएं ?
अब दिन घुट–घुट कर रहना है
बन कर प्रेमी या कोई ढोंगी
मुझे बचालो उसके कदमों से
अब मैं हूं एक गुलाम प्रेम रोगी।।
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