प्रेम का बीज बोया था जो भी यहा
वो ह्र्दय खेत मे अंकुरित हो गया
अब फसल प्रेम की लहलहाने लगी
सारा जीवन मेरा प्रेम मय हो गया
देखा जो भी कभी मेरे इस खेत को
डूब भावो में ही ओ फिदा हो गया
घास जो जम गयी थी अहम की कभी
प्रेम दिल की दवा से फना हो गया
मक्खियां कुछ जो बैठी कभी पत्तों पर
खिल रहे प्रेम का स्वाद लेने लगी
प्रेम के रस को जब भी इकट्ठा किया
तब परागों से मीठी शहद बन गई
प्रेम के इस शहद को जो बांटा गया
प्रेम हर मर्ज की तब दवा बन गई
देखा आंखों ने कानो ने जब से सुना
प्रेम की इस बगीचे ने जब ये कहा
अब चलो इन बहारों में ही घूम ले
सारा जीवन सुगंधित सा होने लगा
कोयले गुनगुनाने लगी साख पर
मन मयूरी सा बन नाचने ये लगा
प्रेम से ही भरी हर सुबह शाम है
जिंदगी का यही सिलसिला हो गया
आ ना पाये ये पतझड़ दोबारा कभी
पीड़ा हरियाली की आज कहने लगी
खिल रहे फूल को तोड़ ना ले कोई
दिल भरा मन का माली ये कहने लगा
प्रेम का बीज बोया था जो भी यहां
वो ह्रदय खेत मे अंकुरित हो गया
रचनाकार
Author
गिरिराज पांडे पुत्र श्री केशव दत्त पांडे एवं स्वर्गीय श्रीमती निर्मला पांडे ग्राम वीर मऊ पोस्ट पाइक नगर जिला प्रतापगढ़ जन्म तिथि 31 मई 1977 योग्यता परास्नातक हिंदी साहित्य एमडीपीजी कॉलेज प्रतापगढ़ प्राथमिक शिक्षा गांव के ही कालूराम इंटर कॉलेज शीतला गंज से ग्रहण की परास्नातक करने के बाद गांव में ही पिता जी की सेवा करते हुए पत्नी अनुपमा पुत्री सौम्या पुत्र सास्वत के साथ सुख पूर्वक जीवन यापन करते हुए व्यवसाय कर रहे हैं Copyright@गिरिराज पांडे/ इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |