पुस्तक : कुल्हड़ भर इश्क : काशीश्क
द्वारा : कौशलेंद्र मिश्र
प्रकाशन : हिन्द युग्म ब्लू
कौशलेंद्र मिश्र जी की रचना है , कौशलेंद्र जो कि युवा पीढ़ी में साहित्य की नई पौध के अग्रणी लेखकों में शुमार है एवं निश्चित तौर पर काफी पसंद भी किए जा रहे है आम बोलचाल की भाषा में साहित्य सृजन करना और वह भी सबको पसंद हो ऐसा कुछ लिख पाना निर्विवादित रूप से एक कठिन कार्य है , दायित्व निःसंदेह बड़ा था किंतु उन्होंने बखूबी निर्वहन किया है ।
उपन्यास का शीर्षक वाकई बहुत सोच समझ कर दिया गया है ।कुल्हड़ भर इश्क के ज़रिए इस युवा कथाकार ने मानो गागर नें सागर समा दिया है । आप सोचते जाइये हर दफा इस शीर्षक पर एक नया ही विचार आपके अंदर आता है ।
इस कहानी में मूल कथ्य तो इश्क़ ही है किंतु संग संग बहुत कुछ समेटा गया है जैसे कालेज जीवन की कुछ छोटी छोटी बातें , सहपाठियों संग नई नई जवान होती पीढ़ी के कभी मासूम कभी नटखट किस्से ,कालेज का वो खूबसूरत समय , हॉस्टल की ज़िंदगी , सहपाठियों के बीच की बहुत सी समझी अन समझी छोटी बड़ी बातें ,खट्टी खट्टी कच्ची अमिया जैसा कच्चा प्यार (या कहें आकर्षण) ,शुरू शुरू में बेमेल लगता पर बाद में परवान चढ़ता इश्क़ , बेफिक्र और बेलौस ज़िन्दगी , चुलबुली छेड़खानियां , और , और भी बहुत कुछ।
पाठक की नज़र में कुछ घटनाक्रम असम्भव हो सकते है किन्तु लेखक द्वारा कथावस्तु को गतिमान एवं रुचिकर बनाये रखने हेतु उन्हें उचित स्थान दिया गया है जो ऐसे मनोरंजक उपन्यास के लिए उचित ही प्रतीत होता है। साथ ही इसे लेखन कला की खासियत ही कहेंगे कि लेखक कहानी के अंत तक पाठक को कहानी से जोड़ने में सक्षम रहे है सारे समय मन में कथानक के अंत को लेकर उत्कंठा बनी रहती है यही लेखन कला की खासियत और लेखक की सफलता है ।
प्रस्तुत कथानक बनारस एवं उसके इर्द गिर्द की पृष्ठभूमि पर है जिसमें क्षेत्रीय भाषा ,परिवेश इत्यादि का मनलुभावन चित्रण है । जो बनारस , घाट या BHU से कभी जुड़े रहे होंगे या जुड़े है उनकी कई यादों को ताजा करती जाती है यह रचना ।
बहुत ही सहज लहज़े में लेखक कई बार गहरी बात भी कह गए , और कई बार भाषाई स्तर से नीचे भी गए किन्तु पृष्टभूमि , पात्र एवं परिवेश के मद्दे नज़र वह भी उपयुक्त ही प्रतीत होता है सहज ही है कि एक कॉलेज जाने वाले युवा के मुंह से साहित्यिक वचन तो कदापि नहीं निकलेंगे न ही अपेक्षित ही है ।
मेरे विचार से हमें उनमुक्त सोच के साथ युवा साहित्यकारों को इतनी छूट तो देनी ही होगी की वे हिंदी को क्लिष्ट शासकीय भाषा के चंगुल से निकाल कर जन जन की भाषा बनाएं ।
समीक्षक हूँ अतः पक्षपात के आरोपों से जल्द घिरने का खतरा तो सदा है ही फिर भी कहूंगा कि मिश्र जी का बहुत सुंदर प्रयास है एवं आगे उनसे और भी अच्छी कृतियों की उम्मीद बढ़ गयी है ।
और अंत में …..
मैं समीक्षा देता हूँ पुस्तक का सारांश नहीं
अतः शेष गुणी पाठकों पर छोड़ता हूँ वे पढ़ें एवं मूल्यांकन अब उनके हाथों में
हाँ एक बात ….. पढ़िए ज़रूर
सादर,
आशीर्वादाकांक्षी,
अतुल्य खरे