विखराता सौरभ सुगंध मैं
जोर – शोर से खिला हुआ।
काँटों से भी मिला हुआ।।
अभिलाषा मेरी यह है, सबको सुख दे जाने को
शांति सौख्य सौहार्द बढ़ाकर, स्वयं ही मिट जाने को।
मिला जितना जग से मुझको, उतना जग में लौटाने को
अंतर बाहर सम है मेरा, क्या शेष बचा छिपाने को।।
तन न्योछावर परहित में
जब से ये सिलसिला हुआ।
काँटों से भी मिला हुआ।।
मर्यादा में रहकर मैं, मर्यादित जीवन जीता हूँ
गले लगाता अरि को भी, जीवन भर विष पीता हूँ।
सुख – दुख आता-जाता है, कभी नहीं मैं रीता हूँ
परिचायक संयोग का मै, प्रेम का धागा सीता हूँ।।
त्याग भावना है सर्वोपरि
कभी न जग से गिला हुआ।
काँटों से भी मिला हुआ।।
खुश हूं अर्थी पर भी मै, चाहे प्रतिमा पर चढ़ जाऊँ
गुँथ प्रेमिका के अलकों में, प्रेमीजन को ललचाऊं।
आकर्षित कर रूठे प्रीतम को, पथ पर उसके इठलाऊं
समभाव लिए मै जीता हूं, बस केवल खुशबु फैलाऊँ।।
नहीं किसी से बैर भाव
कभी न दुख से हिला हुआ।
काँटों से भी मिला हुआ।।