परछाईं

वे जब भी रोशनी में आते हैं,
उन्हें मुँह चिढ़ाती है उनकी परछाईं |
कभी छोटी, कभी बड़ी,कभी प्रश्नवाचक,
कभी विस्मयादि मुद्राओं में आकार लेती
उन्हीं के अस्तित्व का हिस्सा है उनकी परछाईं |
सूरज जब माथे पर होता है,पैरों तले बिछ जाती है
मगर पीठ पीछे होते ही अनायास हो जाती है लम्बी
पूरे वजूद को निगलने को बेताब |
परछाइयों से पुराना रिश्ता है उनका
बचपन में लुका-छिपी खेलती थीं उनके साथ |
वे भागते थे परछाइयों के पीछे
मगर तब भी जब वे अँधेरे में होते थे
उनका साथ छोड़ देती थीं परछाईं |
अब वे डरते हैं परछाइयों से |
एक दिन नदी किनारे रेत पर
ठंडी हवा के झोंकों से हिलती परछाईं को
हाथ पकड़ कर अपनी बगल में
बिठाना चाहा था उन्होंने
खिलखिलाकर हँस पड़ी थी |
हमेशा साथ लिए चलती हूँ,
तुम्हारे हिस्से का अँधेरा
मैं कभी अँधेरे में साथ नहीं छोड़ती
बल्कि विलीन हो जाती हूँ तुम्हीं में |
कभी मेरे साथ उतर कर देखो नदी में
मैं काँपता हुआ आईना बन जाऊँगी,
जिसमें हिलता हुआ नज़र आएगा तुम्हारा अपना ही चेहरा
फिर मैं ही दूँगी सहारा तुम्हारे डूबते-उतराते वजूद को
जल की अतल गहराई से किनारे तक खींच लाऊंगी तुम्हें |

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रचनाकार

Author

  • डॉ. शेखर शंकर मिश्र

    जन्मतिथि:- 01.06.1959, जन्मस्थान:- मुजफ्फरपुर, बिहार, शिक्षा:- एम.ए.(हिन्दी), पीएच.डी., वर्तमान में कार्य:- प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, एम.पी.एस.साइंस कॉलेज, बी.आर.ए.बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर । वर्तमान पता- जनकपुरी लेन नं. 1, श्याम नंदन सहाय कॉलेज के पास, पोस्ट -आर.के.आश्रम,भाया-रमना,बेला, मुजफ्फरपुर, बिहार 842002. रुचि साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन और प्रकाशन, उपलब्धियां:- देश भर की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताएँ और समीक्षाएँ प्रकाशित, आकाशवाणी और दूरदर्शन की साहित्यिक परिचर्चाओं में सहभागिता । दूरदर्शन के शताधिक वृत्तचित्रों में स्क्रिप्ट लेखन और पार्श्व स्वर, प्रकाशित पुस्तकें - 1.प्रश्नवाचक होने से पहले (कविता पुस्तक) प्रकाशन संस्थान, दिल्ली 1991 2.हिन्दी नाटकों में रंग निर्देश 3.लोकगीतों में पर्यावरण चिंतन 4.भारतीय लोकनाट्य : परम्परा एवं प्रयोग । Copyright@डॉ. शेखर शंकर मिश्र/इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

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