ददुआ का जीवन खेती किसानी में व्यतीत हुआ। न ऊधौ का लेना न माधव को देना। ददुआ सदा अपने बैलों को प्यार करता और उसके बैल पूरे इलाके में नामचीन होते थे। वह स्वयं भोजन नहीं करते पर बैलों का पेट टो-टो कर चारा खिलाते। चाहे भादों हो या माघ वह सदा हरे चारे का प्रबंध अपने पशुओं के लिए करते। वह फालतू पूरे गाँव में किसी के दरवाजे पर नहीं जाते। सदा रिजर्व रहने वाले व्यक्ति थे।
वह बरसते हुए पानी में जोन्हरी का भूजा खाते हुए खुरपी लेकर अपने खेत पर जाते और वहीं पानी पीकर खेत की निराई करने लगते। जबकी चारोतरफ काले – काले बादलों से बिजली टूट रही होती पर ददुआ को भय नाम की चीज नहीं थीं। उस कड़क आवज को सुनकर लोगों का हृदय घर बैठे दहल जाता पर ददुआ अपना काम तमाम करके घास सिर पर रखे पानी घास के ऊपर से चूता हुआ, आधी धोती पहने एवं आधी ओढ़े हुए घर आते।
ददुआ ऐसा व्यक्ति था जो अपने कमाई और परिश्रम के बल पर पूरे गाँव में सर्व प्रथम लिंटर लगवाया, जिसे देखने के लिए दूर – दराज के लोग आते की बालू से भी घर बनता है। ददुआ के दरवाजे पर चार लोग बैठ जाय और बच्चों से चाय बनाने को कह दे तो ददुआ नाराज हो जाता। वैसे ददुआ की शादी नहीं हुई थी भाई के ही बच्चे थे। वह कहता हमारी कमाई परिश्रम की है लोगों में बाटने के लिए नहीं है। वह कृपण टाइप के इंसान थे। पूरे जीवन मे कभी चौराहे पर नहीं गये शहर की बात क्या है।
उनकी कमाई ने रंग ऐसा लाया की घर पर दो-दो ट्रैक्टर, जीप, कार, टेम्पो आदि वाहन खड़े रहते। खेत भी लगभग पचास एकड़ कर लिया था पर कभी दान दक्षिणा ब्राह्मणों को नहीं दिया। न ही पूरे जीवन काल में सत्य नारायण कथा भी सुना। सारा धन कमा कर भाई के बेटों को सौंप दिया। ददुआ सदा सत्य बोला और कभी मच्छर दानी नहीं लगाया क्योंकि धूप में काम करते – करते उसके चमड़े इतने कठोर हो गये थे कि मच्छरों की दाल नहीं गल पाती थी। कभी एक टिकिया दवा का इस्तेमाल नहीं किया।
सब कुछ होते भी ददुआ का अंतिम समय आ गया। घर के एक कोने में पड़ा छटपटा रहा है। आज उसकी तरफ देखने वाला कोई नहीं है। इधर प्राण पीड़ा चल रही है। कई दिनों से ददुआ भोजन नहीं किया है। संसार में चार करोड़ की सम्पत्ति छोड़ कर जा रहा है। इस प्रकार ददुआ साम के समय बिना बछिया बैतरणी के इस संसार को छोड़कर चल दिया। एक मूठा जौ तक बदा नहीं हुआ ददुआ को। ददुआ के मरने के बाद घर वालों को पता लगा कि कल सुबह पचखा लग जायेगा तथा उसकी शांति कराने में दसियों हजार अनायास खर्च होंगे। इसलिए ददुआ की लाश को जलाने के लिए नदी पर चल दिये।
जबकी हिन्दू धर्म में लाश रात्रि में नहीं जलाई जाती पर पंचख शांति न कराना पड़े इसलिए ददुआ की लाश डेढ़ बजे रात में जलाई गयी। बडा़ खेद है लोग दोनों हाथ से बटोरने में लगे हैं खाली हाथ जाने के लिए। ददुआ का जेंडर भी घर वालों ने चेंज कर दिया। थर्ड जेंडर ही रात में जलाये जाते हैं। अब तो जग वालों की आंख खुलनी चाहिए। जय गोविंद।।