निष्कर्म भाव से ही,प्रकृति देती हमको सब
क्यो फिर पीछे हैं मानव उसके पोषण में अब।
धरा के रूप को नमी को सवारना होगा अब
अब चेत जा ओ मानव नही तो पछताओगे सब।।
सह लेता है तुम्हारे पत्थर भी, पेड़ फल देता रहा
नदी अविरल बहती रही जा कर सागर से मिलती रही।
बस्तियों को पास की जनता जिंदगी देती चलती गयी
हमने उसमें कूड़ा फेंका फिर भी वो निर्बाध चलती गयी।
मानव जीवन क्षणिक फिर भी मायाजाल में उलझा रहा
दीपक देखो स्वयम जल रोशनी फैलाता रहा।
ओर मैं मानव होकर भी प्रकृति को नुकसान करता रहा
कुछ पाने की आश त्याग कर देखभाल प्रकृति की करो।।
निष्कर्म रवि ने देखो प्रकाश जगत में फैलाया
गगन, पवन, क्या कभी कोई याचना कर पाया।
कर्तव्यों से अधिकारों से ही मानव ने अब तक पाया
नश्वर हैं ये क्या फिर क्यो तू निष्कर्म न रह पाया।।
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