देखो
उस नदी को,निर्झर को
नदी की नाद कल-कल, छल-छल
निर्झर की झर-झर, झहर-झहर
यह हास नहीं नदी-निर्झर की
जीवन की भी यह शाश्वत है गति
जैसे जीवन में कभी-कभी
दिल टूटा, आँखें रोती हैं
निर्झर यह झर-झर कहता है
तू ! रोने को नहीं बना हुआ
मत रो ! खुद की पहचान बना
अपनी आंसू की लड़ियों से
स्वच्छंद कोई भी गान बना
रोने से कुछ भी होता नहीं
खुद की एक पहचान बना
देखो दोनों की एक गति
नदी में तरंग, ह्रदय स्पंदन
नदी में उछाल, मन उच्छ्रंखल
नदी की लगाम, बांध जैसे लगाम दो बुद्धि की
जग का खुद का कल्याण तभी|
उठ रोना नहीं थक जाना कहीं
नदी-निर्झर को देखो-सीखो
ऐसे वे रुकते, थकते नहीं
हाँ राहों में रोड़े आते
तब भी साहस, बल खोते नहीं
चाहे पर्वत-राज हिमालय हो
उनसे भी बचाकर चल देते
“मंजिल पर जब-तक नहीं पहुँचा
मैं नहीं रुकता, तुम क्यों रुकते?
देखो मुझको, सीखो मुझसे
राहें कितनी ही लंबी कंटीली हो
तुम यदि साहस, बल खोओ नहीं
मंजिल आएगी कभी-न-कभी”
नदी-निर्झर तो बहते जाते
गाते जाते कहते जाते
जीवन के शाश्वत, मूक ह्रदय से
चिर-निरंतर, गाते गीत, चले जाते||