धर्मराज का अंतर्मन

विनाश हुआ कौरव वंश का,

पांडवों ने विजय थी पाई

युधिष्ठिर का राजतिलक करके,

द्वारिका को लौट गए कन्हाई,

जाने क्यूं धर्मराज का,

ह्रदय बहुत अकुलाता था ।

चारो तरफ नजर सिर्फ,

रुधिर ही रुधिर आता था ।।

अभिमन्यु की चीख कानों में,

हर वक्त सुनाई देती थी ।

कहीं वीर घटोत्कच की,

जलती चिता दिखाई देती थी ।।

एक अंधे और एक वृद्धा के,

नैनो से दरिया बहते थे ।

सौ पुत्रो की लाशों का,

वो भार उठाकर चलते थे ।।

जीत के भी जो ना जीत सके,

जाने क्या क्या खुद हम हारे हैं ।

द्रोणी ने द्रोपदी के पांच तनय,

सोते हुए ही संघारे है ।।

क्या इसी विजय लिए हमने

जाने कितने अपनो को खोया है । ?

कांटों का ताज लगे सर पर,

ये सोच के धर्मराज अति रोया है ।।

भीष्म पितामह सर शैय्या पर,

कितने कष्ट को झेल रहे हैं ।

हम मखमल के बिस्तर पर,

सुख सुविधा को भोग रहे है ।।

व्याकुल मन से इंद्राप्रस्त से,

धर्मराज कुरुक्षेत्र भूमि को जाते है ।

सर शैय्या पर पड़े पितामह को,

धर्मराज पद रज शीश लगाते हैं ।।

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रचनाकार

Author

  • अनूप अंबर

    नाम : अनूप अंबर जन्म तिथि:01जनवरी 1991 पिता का नाम:राजेश कुमार पता: फर्रुखाबाद उत्तर प्रदेशइनके नौ साझा संकलन प्रकाशित हो चुके हैं, पच्चीस अर्थलोगी प्रकाशित हो चुकी है, विभिन्न मंचों से 150 से अधिक सम्मान पत्र प्राप्त है, इनकी विभिन्न रचनाएं पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है,ये कई साहित्य पटलों पर सक्रिय है ।। Copyright@अनूप अंबर / इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

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