धरती क्या हंसने लगी?

चांद निकला गगन में, हंसी चांदनी,
तो मगन हो के धरती क्या हंसने लगी?
माना हंसते हो कुछ पादप लता-
संग बेला, चमेली, रातरानी भले,
इन के जैसे सभी बाग़ में तो नहीं।
इन की झाड़ी खड़ी, युवा जोड़ी सी,
ये हंसे अमावस भी पूनम हो यहां।
जड़ा देख धरती शमशान की,
चांदनी भी यहां, चुपचाप सी,
लग रही है यहां,रो रही हो ज़मीन;
सांस भी संग छोड़ बनगयाअजनबी।
चांद निकला गगन में हंसी चांदनी,
तो मगन हो के धरती क्या हंसने लगी।

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रचनाकार

Author

  • प्रभात रंजन चौधरी

    स्नातकोत्तर(हिन्दी) सम्प्रति- शिक्षक (हिन्दी) के रूप में सीतामढ़ी,बिहार में कार्यरत|Copyright@प्रभात रंजन चौधरी इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

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