दूर तक सूखे हुए पत्ते मुहब्बत के ।
खिल नहीं पाये कभी गुंचे मुहब्बत के ।
किस क़दर कमज़ोर थे अपने नशेमन भी ।
आंधियों में उड़ गए तिनके मुहब्बत के ।
ख़ुशनुमा सावन भी आया था कभी दिल में ।
हमने डाले थे कभी झूले मुहब्बत के ।
अब कहाँ वो अपनी ज़ुल्फ़ों को सँवारेंगे ।
तोड़ डाले वक़्त ने शीशे मुहब्बत के ।
तिश्नगी बह कर समंदर तक पहुँच जाती ।
गर लबों से फूटते झरने मुहब्बत के ।
अब अदावत की कथाएँ चल रहीं हर सू ।
अब नहीं होते कहीं चर्चे मुहब्बत के ।
कल तलक़ तो दो मुसाफ़िर साथ चलते थे ।
क्यों हुए वीरान ये रस्ते मुहब्बत के ।
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