दर्द की परछाइयाँ
भीड़ में है आदमी
पर ढो रहा तनहाइयाँ
घेरती हैं ज़िन्दगी को
वायदे ,नारे सुनहरे
कब निभाएँगे जनाब !
और कब तक दिखाएँगे
मंच से मखमली ख़्वाब ?
अभावों के अँधेरे में
ठोकरें खाते हैं हम
आप सुविधाएँ बिछाकर
ले रहे अंगड़ाइयाँ !
आप हैं नेपथ्य में कुछ और
कुछ हैं सामने
गिराते हैं फिर चले आते हैं
हमको थामने!
आपकी मुस्कान नकली
अश्रु नकली आपके
हमने तो हमदर्द समझा
आप निकले काइयाँ !
पा रहे सम्मान बगुले
हंस अपमानित यहाँ
काग गाते राग ,कोकिल मौन
आतंकित यहाँ !
मूल्य-संकट के विकट
इस समय में
किस कंठ से , सुनायें
हम बन्धु ,कहिए
गीत,ग़ज़ल ,रूबाइयाँ !
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