तुम थे,मैं था ।
थोड़ा थोड़ा सा अहम था l
“तुम” में “तुम” भरपूर था,
और मुझमें “मैं” l
मैं ऋणात्मक सा था,
एक छोटी सी लकीर ,
वहम के समानांतर ,
समझ रहा था अंतर l
फिर तुम में मुझे,
मेरे खुद के अंतर से बचा हुआ
शेष दिखा l
थोड़ा भविष्य के भाल पर,
हम का स्वरूप दिखा l
तुम ऊर्ध्वधार सी आकर,
मुझे बदलने लगी,
ऋणात्मक को,
धनात्मक करने लगी l
इधर उधर सब बिखरा जुड़ने लगा,
वक्त भी थोड़ा थोड़ा हंसने लगा l
फिर तुम में मैं दिखने लगा ,
और मुझमें तुम l
दोनों ने फिर कोशिश की,
न “तुम” रहे ना “मैं” l
दोनों ने मिलकर
धनात्मक को थोड़ा घुमाया,
मैंने भी ऋणात्मक की यात्रा को,
गुणात्मक तक पहुंचाया।
फिर तुम और मैं हम हो गए,
फूल पत्ती काँटें सब महक गए l
हाँ, आसान तो नहीं था,
मैं की आग को बुझाना,
जिन्दगी के भाग (division) को दौड़ाना l
कभी आंसुओं को हंसाना,
कभी हालातों को झूला झुलाना l
पर आसान भी तो नहीं होता,
तुम को मैं को छोड़,
हम हो जाना ll