जीवन की ओर

धारा चल जीवन की ओर

जीवन की किसी मरुभूमि को

कर सिंचित,चल जग की ओर

धरा के उर्वर कितने कोने,

मरू,नागफनी उगे परे हुए

तू ! व्यर्थ कहीं बहती जाएगी

मस्ती में गाति जाएगी

बिरद जलधि में खो जाएगी

अस्तित्वहीन गुम हो जाएगी

नहीं तेरी है वहां जरुरत

देखो,

जीवन-वसुधा की ओर

मिटटी में तू ! खो जाए

याद करेगी पर तुझको

जिस मरुभूमि को किया है उर्वर

भूल भी जाए तो क्या गम

जब,

मरू-हित हरियाली बन रह जाए

जब-जब इतिहास देखे दुनिया

तेरे ही बस गुण गाए

दे श्रद्धांजलि तुझे वहाँ सब

भरकर निज नैनों के कोर

धारा चल जीवन की ओर||

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रचनाकार

Author

  • डॉ दिवाकर चौधरी

    कल्याणी प्रतिभा हो मेरी, मधुर वर्ण-विन्यास न केवल||Copyright@डॉ दिवाकर चौधरी इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

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