धारा चल जीवन की ओर
जीवन की किसी मरुभूमि को
कर सिंचित,चल जग की ओर
धरा के उर्वर कितने कोने,
मरू,नागफनी उगे परे हुए
तू ! व्यर्थ कहीं बहती जाएगी
मस्ती में गाति जाएगी
बिरद जलधि में खो जाएगी
अस्तित्वहीन गुम हो जाएगी
नहीं तेरी है वहां जरुरत
देखो,
जीवन-वसुधा की ओर
मिटटी में तू ! खो जाए
याद करेगी पर तुझको
जिस मरुभूमि को किया है उर्वर
भूल भी जाए तो क्या गम
जब,
मरू-हित हरियाली बन रह जाए
जब-जब इतिहास देखे दुनिया
तेरे ही बस गुण गाए
दे श्रद्धांजलि तुझे वहाँ सब
भरकर निज नैनों के कोर
धारा चल जीवन की ओर||
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