देखकर आज काग़ज़ी चेहरे।
याद आए थे शबनमी चेहरे।
अब कहांँ दिखती हैं हंँसी सूरत,
भूल बैठे हैं सादगी चेहरे।
भा रहे सबको अजनबी चेहरे।
करना तो चाहता हूं मैं भी मगर,
करते हैं अब तो शायरी चेहरे।
बिछ गई बाज़ी जो अदावत की,
हर पल बदलते आदमी चेहरे।
हर कोई समझता है ख़ुद को भला,
फिर ये कैसे शिकायती चेहरे।
जब हमें विदा करना तो मुस्कुराना,
अब नहीं भाते मातमी चेहरे।
दिल ‘अकेला’ तुम्हें कहाँ ढूँढे,
हर तरफ़ हैं बनावटी चेहरे।
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