चलता पागल पांव हमारा

अब भी पगडंडी राहों पर, चलता पागल पांव हमारा।
बिते दिन की यादों को ले, खड़ा यह पीपल छांव पसारा।
सन-सन करती चलती पूर्वा,संदेशा किसकी लाती है,
बरसों पहले की स्वर लहरी, फिर से यह सुना जाती है।
किसी हीर की पदचिन्हों का अन्वेषक क्यू पांव हमारा?
अब भी पगडंडी राहों पर, चलता पागल पांव हमारा।
पलकों पर अलसाई यादें,अधर ओट से मुस्काता है,
पेड़ों के ऊपर चाकू से गोदा वह चिह्न दिख जाता है।
क्यू निर्जन वन बीच अकेले, हृदय से उठता गीता हमारा।

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रचनाकार

Author

  • प्रभात रंजन चौधरी

    स्नातकोत्तर(हिन्दी) सम्प्रति- शिक्षक (हिन्दी) के रूप में सीतामढ़ी,बिहार में कार्यरत|Copyright@प्रभात रंजन चौधरी इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

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