शीश जटा और चंद्र विराजे
गले भुजंग लपेटे हुए हैं
माथे पे हैं जो त्रिनेत्र विशाल
कान में कुंडल हाथ त्रिशूल
निशदिन डमरु बजाइ रहे हैं
जब जब हो जाते मतवाले
तब तब शिवजी नाच रहे हैं
शिव के जटा के ऊपर ही
भाल सुशोभित चंद्र रहे हैं
खुश होकर के पावन गंगा
जटा में शिव के नाच रही है
करते हैं जो बैल सवारी
भांग धतूर ही खाइ रहे है
पीकर विष का प्याला शिवजी
पूरे जगत को बचाइ रहे हैं
नीलकंठ शिव भोले बाबा
मसान भभूति लगाई रहे हैं
ओढे हुए म्रिग छाला शिव जी
गौरा के संग विराज रहे है
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