खिलता है कहीं एक फूल
जलता है कहीं एक दीप
व्याकुल ढूँढता कोई कोना
काँप उठता है अन्धकार
कूकती है एक कोयल
उखड़ जाते हैं पतझड़ के पाँव
झुकती है कोरे कागज पर
एक स्वाधीन कलम
दरकने लगती हैं दीवारें
झूठ के दुर्ग की
बढ़ रही हैं कुंठाएँ कंटकों की
हताशा अँधेरे की
परेशान है पतझड़
झूठ बहुत झुँझलाया हुआ है
क्योंकि, खिल रहे हैं
अनगिन फूल
दीर्घ है दीपित दीपों की पाँत
गूँज रही है काकली
अटूट है
कागज से कलम का रिश्ता ।
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