राह चलते
या कहीं बाज़ार में
पूछता है ख़ैरियत जब
भर आता है मन
सोचता हूँ , खोल कर रख दूँ
सभी गोपन- दुख-सुख
संताप , चिन्ताएँ
कुछ तो कम हो बोझ
हल्का हो मन
मुख़ातिब होता हूँ जब
संवाद- आतुर
देखता हूँ पूछने वाले की आँखों में
अपनत्व न जिज्ञासा
औपचारिकता महज़
हड़बड़ी चेहरे पर
बात मन की दबाकर
मन की गुहा में
ख़ुद पर खीझता हुआ
जतन से मुस्कुराता हूँ
” ठीक हूँ•••कुशल-मंगल है•••
दुआ है आपकी”
और ऐसा भी हुआ है
कभी-कभार
कि कुछ कहूँ
क़बल उसके
शुभचिन्तक बढ़ाते क़दम
आगे बढ़ गये हैं
चकित ,ठिठका
रह गया हूँ मैं ।
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