कहाँ हो तुम?

आक्षितिज पाँक्त हैं देवदार

फुनगियों पर आसमान उठाये!

पास की घाटी में

गा रहा निर्झर अप्रतिहत

ऊपर और ऊपर

वातायनों में घुस रहे हैं

दल के दल बादल

यही है अलका ?

धवल कणों में टूट रहे हैं

सघन घन

पत्तियों के पायदान

उतरते हैं नीचे

झरते हों जैसे चमेली के फूल!

प्रसृत चतुर्दिक है

दूधिया अँधेरा

ढँक गयी है राह

गुमसुम खड़ा हूँ

सुनता निर्झर का अनहद

सर्र से गुजरती गाड़ियों के हाॅर्न

महसूसता हूँ

आलिंगन बर्फानी बयार का

भीतर तक कँपाना चाहती है ठंड

कि पहन लेता हूँ

वही लाल स्वेटर

बुना था अबकी शिशिर में

तुमने जो

लगता हैंं स्वेटर नहीं

पहना हो तुमको ही

गरमाने लगती है देह

यायावर मैं यहाँ

मेघों के मंडप में

दूर दार्जिलिंग में

कहाँ ,कहाँ हो तुम?

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रचनाकार

Author

  • डॉ रवीन्द्र उपाध्याय

    प्राचार्य (से.नि.),हिन्दी विभाग,बी.आर.ए.बिहार विश्वविद्यालय,मुजफ्फरपुर copyright@डॉ रवीन्द्र उपाध्याय इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है| इन रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है|

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