मैंने कविताओं को मरते देखा।
उस वक्त देखा,
जब यह अन्याय के खिलाफ लिखने की सोचती है ।
हजारों बार तो यह रात को
सिरहाने बैठकर घंटों तक रोती है,
इनके रोने की आवाज़
मुझे ऐसे सुनाई देती है,
जैसे एक दुधमुंहा बच्चा अपनी मां के लिए रोता है ।
कविताओं की आवाज़ में मुझे वो दर्द महसूस होता है,
जो एक पत्थर में दरार कर सकता है।
हां ! पर स्त्री की-सी प्रतीक्षा भी कविताओं में मैंने देखीं।
ये रोते-रोते कहती हैं,
हमें अधिकार दो जीने का,
हम भी जीना चाहती है।
सदियों से इसी इंतजार में है,
कि कोई तो हमारे लिए लड़ेगा,
कोई तो होगा हमारे हक में बोलेगा,
कोई तो हमारे साथ रोएगा।
मेरा सिरहाना इस तरह भीगा हुआ पाया,
जैसे किसी ने पानी से भिगोया हो,
मगर वो कविताओं के आंसू से भीगा था।
मैं मरते दम तक कविताओं के हक के लिए लड़ूंगा,
उनके साथ ही जीऊंगा।
मेरी पहली और अंतिम सांस कविताओं के लिए ही बनी है।
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