कर्म और उसके फल

कितना आसान होता है, कुछ नामुरादों के लिए,
रिश्तों में कपट करना, छ्लना, फरेब करना।
अपनी बातों से फिर जाना, पलट जाना।
अपने स्वार्थ् में अँधा हो जाना।
रिश्तों को ताक पर रख देना,
और खुद को श्रेष्ठ कहलवाना।।

हसीं आती है, ये इंसान होते भी हैं??
या धरती पर आते हि इसलिये है,
ताकि दुसरों कि ज़िन्दगी को जहन्नुम बना सके।।

ना रिश्तों का मान, ना अपने वचन का,
ना मर्यादा का भान, ना प्रेम का ज्ञान।
ना शब्दों में लहजा, ना कर्म के प्रति अनुरागी,
ना ईश्वर को समझते, ना धर्म को।
खुद को बैरागि कहलवाना बड़ा भाता है,
सच कहा जाए तो कुछ कहाँ आता है।।

कोई बुरा कर के इतराता है, अपनी चालकियों पर,
रब सब देख रहा, बस यही भूल जाता है।
भोगने होते हैं हर किसीको, अपने अच्छे-बुरे कर्म,
पुण्य का सुख, पाप का कोप हर इंसान को,
जन्म्-जन्मान्तर् भुगतने होते हैं

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रचनाकार

Author

  • पूनम गूँजा

    जगन्नाथ पूरी, ओड़िशा, Copyright@पूनम गूँजा/इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

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