कंचन के कंगन की किकिंणि की खनकार, कर्णप्रय होत मन अति हरषात है।
खेलत अहेर मार मारत है पंच सर, कलियन पर अलि देखि मन विचलात है।
गांव गांव बीथिन में विलसत बसन्त छटा, लावण्य रूपसी पर उमड़ि उमड़ि जात है।
घूँघट पट झीन सिंधु मारत उछाल मीन, कहै शेष रसिकन के मन में सोहात है।।
चहुँओर सरसों के पीयर पुष्प लहरि रहे, आमन के बागन में बउर गुच्छ आवत है।
छलकाइ सोम रस हेम कुंभ कर में लइ, उषा नागरि जड़ चेतन सबके जगावत है।
जन जन में नवल उमंग का संचार बढ़े, शीतल सुगंध बहु समीर लहरावत है।
झूमि झूमि झटकति जलमुक्ता घन केशन से, कहैं शेष दांतन दामिनी दमकावत है।।
टहलि टहलि षटपद मकरंद रस पान करें, बहु रंग पुहुप अब पीर के बढ़ावत है।
ठाढ़ रही कामिनी निहारै मनदीप पथ, सुखद मधुमास विरहाग्नि के जलावत है।
डाल डाल पात पात किसलय ललामी देखि, अंग अंग पोर पोर पिउ पिउ बोलावत है।
ढीठ मन मांगत अब शीघ्र प्राणप्रिय संग, कहै शेष निष्ठुर भये कन्त नाही आवत है।।