एक दिन

करले तू इस जगत में सद्व्यवहार एक दिन।

जाना पड़ेगा छोड़कर संसार एक दिन।।

विषयादि त्रिगुण फंद अविद्या विकार में,

स्व ढका मन बुद्धि चित्त अहंकार में।

अंतिम घड़ी अतिपीर हाथ पांव पटकते हैं,

पंच भूत आकर अपना कर्ज वसूलते हैं।

सत चित स्वरूप पाकर आनंद न जगाया,

लख चौरासी भरमा पर मुक्त हो न पाया।

तू कब बनेगा आखिर समझदार एक दिन।।

जाना पड़ेगा ०।।

मरती जीती शरीर है तेरा ध्यान किधर है,

तू सत्य सनातन है और अजर अमर है ।

निष्फल न होते कर्म, सद्कर्म नित्य कर,

परमात्मा के अंश तूं जी ले होकर निडर।

मृगतृष्णा के चक्कर में निजरूप भूल बैठा,

तू सादगी पसंद है रहता है मगर ऐंठा।

मिथ्या जगत प्रपंच से हो पार एक दिन।।

जाना पड़ेगा०

कर्तव्य बोध हो सदा नि:स्वार्थ भाव से,

स्वभाव अधिक कीमती क्षणिक प्रभाव से।

पानी के बुलबुले सा जीवन तुम्हें मिला,

परोपकार त्याग करुणा के दीप लो जला।

सम्मान बड़ों का हो छोटों से स्नेह हो,

संतोष रूपी धन से परिपूर्ण गेह हो।

छूटेगा शेष सारा जग व्यवहार एक दिन।।

जाना पड़ेगा ०

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रचनाकार

Author

  • शेषमणि शर्मा 'शेष'

    पिता का नाम- श्री रामनाथ शर्मा, निवास- प्रयागराज, उत्तर प्रदेश। व्यवसाय- शिक्षक, बेसिक शिक्षा परिषद मीरजापुर उत्तर प्रदेश, लेखन विधा- हिन्दी कविता, गज़ल। लोकगीत गायन आकाशवाणी प्रयागराज उत्तर प्रदेश। Copyright@शेषमणि शर्मा 'शेष'/ इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

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