कागज की नौका तैराती काँटो में फूल पिरोती है
पूरा परिवार सुला कर वह रोती ज्यादा कम सोती है
मच्छर भी कोई आ जाये तो वो भी पकड़ा जाता था
परिपूर्ण सत्व के अस्त्रों से लक्ष्मण तक जकड़ा जाता था
रघु जैसा ज्ञानी धीर वीर खो गया जहाँ की राहों में
वो लंका जल कर खाक हुई नारी की बेबस आहों मे
वह देवी है वह जननी है दासी भी और प्रियतमा भी
वह नहीं बनाती केवल तन स्थापित करती आत्मा भी ११११
अपने सब गम हँस कर सहती प्रिय की पीड़ा में रोती है
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प्रियवर की बाँहों में हरदम रजनीगंधा महकाती है
पर उन प्राणो पर कष्ट देख वह सारंधा बन जाती है
सुर ताल की लगती है लय कभी लाती पौरुष से प्रलय कभी
आहट से भीरु मृगाक्षी वह करती समाज को अभय कभी
होती बदनाम मंथरा सी अपनों की नफरत सहती है
जगदीश विरोधी कुटिल ह्रदय दशशीष मिटा कर रहती है
पन्ना सा करती महा त्याग नारी कुलदेवी होती है
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अपनी सिंदूर बचाने को वह काल मार्ग अवरुद्ध करे
और वंश की शान बढाने को खुद आगे आ कर युद्ध करे
वो पीठ बाँध नवजात शिशु भिड़ जाती है तूफानो से
दोनों हाँथों में ले के खड्ग लड़ जाती है शैतानो से
चुपचाप किये परदा घर मे गुड़िया सी भोली लगती है
इज्जत पे नजर रखने वालों को आग की गोली लगती है
घर घर का मिटाती अँधेरा हमसब दीपक वह ज्योती है
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