उड़ान

पारो अपने गांव के मध्य विद्यालय से आठवीं की परीक्षा पास कर आगे की पढ़ाई के लिए गांव से आठ किलोमीटर दूर कुर्साकांटा हाई स्कूल में नाम लिखना चाहती थी। वह कुछ डरी सहमी सी अपने पिता से बोली-बापू मैं आगे की पढ़ाई के लिए हाई स्कूल में नाम लिखना चाहती हूं ,प्लीज आप मना मत कीजिएगा बापू , इतना बोल कर पारो आशा भरी दृष्टि से अपने पिता की ओर देखने लगी।

बेटी के सर पर हाथ फेरते हुए रघु बोले -पर बेटा! अपने गांव में तो हाई स्कूल नहीं है अगल – बगल के गांवों में भी नहीं है कहां पढे़गी हाई स्कूल की पढ़ाई ?

गांव में नहीं है तो क्या हुआ बापू कुर्साकांटा में तो है ना ,और अब तो सरकार लड़कियों को स्कूल जाने के लिए नवमी कक्षा में हीं साईकिल भी देती है ना ?

तो क्या तू साईकिल चलाकर इतनी दूर पढ़ने जाएगी ? और तुझे तो साईकिल चलाना भी नहीं आता है ।

पारो चहककर बोली-सीख लूंगी ना बापू , दो-चार दिनों में तो सीख हीं लूंगी । थोड़ी-थोड़ी तो सीख हीं ली हूं। अपने गांव के स्कूल में अनूप सर हैं ना वह अपनी साईकिल सभी लड़कियों को चलाने देते हैं ,वे कहते हैं कि लड़का लड़की में कोई भेद नहीं है सबको आना चाहिए साईकिल चलाने के लिए ठीक से सीख लोगी तभी तो हाई स्कूल साईकिल चलाकर जा पाओगी । नवमी कक्षा में सबको साईकिल मिलेगी ।

अनूप सर बहुत अच्छे हैं, है ना बापू?

रघु हां में सिर हिलाता हुआ बोला-पर बेटा तुम्हारी मां और दादी राजी होगी तब ना ?

प्लीज बापू आप किसी तरह मां और दादी को राजी कर लीजिएगा, कहते-कहते पारो की आंखों में आंसू आ गए।

पारों की आंखों में आंसू देख कर रघु बोला -अच्छा बेटा, रोना नहीं मैं कोशिश करके देखता हूं पर तुझे भी मेरा साथ देना होगा ।

मैं…. मैं… मैं कैसे साथ दूंगी बापू ?

अरे बस थोड़ी सी कोशिश करनी है। एक-दो दिन गाल- मुंह फुला कर तुम रूठ जाना, खाना पीना छोड़ देना बस अपने मान जाएगी, मां है ना ? मां बुरी नहीं होती बेटा! तुम्हारी मां भले हीं सख्त मिजाज की है पर उसका दिल बड़ा नेक है। किसी को भी दुखी नहीं देख सकती ,और जब तेरी मां मान जाएगी तो दादी का क्या उसे तो मैं चुटकी में मना लूंगा। याद है ना ? जब पहली बार तुझे गांव की स्कूल ले जा रहा था तो कैसे पूरा घर सिर पर उठा लिया था। लेकिन बाद में मान गई थी ना? बस वैसे हीं फिर मान जाएगी, और हां तुमको भी मैं भूखे थोड़ी हीं रहने दूंगा खाते समय कुछ रोटियां चुपके से जेब में रख लूंगा और मौका पाते हीं तुझे खिला दूंगा।

पिता की बात सुनकर पारो का चेहरा खिल उठा मन तो हुआ नाचने लगे पर दादी के डर से नहीं नांची। रघु का हाथ चूम कर बोली आई लव यू बापू ।

अरे -अरे यह अंग्रेजी में तूं क्या बोली पारो? आई लव यू तो लड़का लड़की को बोलता है ना? एक बार सनीचर काका का बेटा महेशवा की बेटी को आई लव यू बोला था ना तो पूरे गांव के लोग उसे मार -मार कर अधमरा कर दिया था, वही मार खाकर जो पंजाब भागा अभी तक भागले है।

अरे बापू वह सब पहले जमाने की बात है अब तो सबको सब बोलता है । इसका मतलब खराब थोड़ी होता है, प्यार तो सब, सबसे करते हैं ना?

रात में खाना खाते समय जब रघु अपनी पत्नी सुमित्रा से पारो की आगे की पढ़ाई के बारे में बताने लगा तो वह आग बबूला हो गई। रघु की मां भी बहू के सुर में सुर मिलाती हुई बोली-ई का कहते हो रघुवा, पारो बेटी होकर इतनी दूर शहर पढ़ने जाएगी, वो भी साईकिल चलाकर ?

हां तो क्या हुआ माय ! जब पारो पढ़ना चाहती है तो हम क्यों बाधा बनें।

अरे इसमें बाधा की कौन सी बात है बेटा! बेटी जात है, वह आसमान का चांद मांगेगी तो क्या उसे चांद ला कर दोगे? गांव भर में किसी की बेटी इतनी दूर पढ़ने जाती है क्या ? ईज्जत आबरू का थोड़ा भी ख्याल है कि नहीं।

इसमें ईज्जत आबरू की क्या बात है माय! बभनटोली की लड़कियां पढ़ने जाती हैं कि नहीं? ईज्जतदार तो वे लोग हैं हम लोग कौन सा बड़का ईज्जतदार हैं ।

अरे बेटा ! वे लोग की बात क्यों करते हो वे बड़का लोग हैं हम छोटका लोग उनका देखा देखी कर सकेंगे भला?

पढ़ने लिखने में बड़का – छोटका नहीं होता है ।सरकार सबको बराबर अधिकार दिया है , हम खुद हीं अपने को छोटका मानकर घर बैठे रहेंगे तो छोटा हीं कहलाएंगे ना ?

देख बेटा! बात सिर्फ बढ़के- छोटके की नहीं है वे लोग की लड़की नहीं पढे़गी तो शादी ब्याह में भी दिक्कते होती है। वे लोग अपनी बेटी के लिए डाक्टर कलेक्टर आ…वो क्या कहते हो.. हां इंजीनियर जैसा अफसर हकीम लड़का खोज के लाता है हम लोग पढ़ा लिखा कर क्या करेंगे वही खेत पधार में काम करना होगा ना?

नहीं माय हमारे बच्चे सिर्फ खेत पधार में हीं काम नहीं करेंगे ।हां हम डॉक्टर इंजीनियर लड़का नहीं ला सकते पर अपनी बेटी को बना तो सकते हैं ना?

ये…. लो… सुनती हो बहू ! ई अपनी बेटी को डॉक्टर इंजीनियर बनाएगा सुतल मढ़ैया में सपना महल का , तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है का रे?

रघु को माय की इस बात का उत्तर दिए बिना चुपचाप खाते देखकर सुमित्रा बोल पड़ी -हां माय ठीक कहती है ,,नाम गांव लिखना सीख ही ली है यही क्या कम है लड़की के लिए आगे पढ़ कर क्या करेगी कलेक्टर बनेगी क्या ?

रघु भी तुनक कर बोला-हां हां कलेक्टर बनेगी क्यों नहीं बनेगी? हम लोगों को आरक्षण है, लड़की जात है। पढ़ी-लिखी रहेगी तो कोई छोटी- मोटी सरकारी नौकरी मिल भी सकती है, तकदीर बदल जाएगी । तुम्हारी तरह रात दिन भट्टी में जलती नहीं रहेगी। देखती नहीं शंकरबा की मौगी को पढ़ी लिखी थी तब ना हो गई आंगनवाड़ी की नौकरी , कैसे ठाट से रहता है शंकरबा , पंजाब कमाते कमाते चांनी का बाल उड़ गया था। कै शेर अनाज बांटती है दो-चार शेर बांटकर सब चट, कौन पूछता है जांच में ओ मैडम आती है ना तो उसे भी सुंघौनी मिल जाती है चुप्प , फिर कौन क्या बोलेगा।

सुमित्रा कुछ शांत होकर बोली-अच्छा वह सब छोड़ो पर यह बताओ कि गांव में आगे की पढ़ाई तो है नहीं फिर कैसे पढे़गी आगे की पढ़ाई?

रघु बोला-शहर जाएगी ,मैं ले जाऊंगा , साईकिल पर बैठाकर । कुछ दिन में सरकारी साईकिल मिल जाएगी तब खुद चला कर जाएगी।

सुमित्रा थाली में रोटी पटकती हुई बोली- लो सुन लो माय ! अपने लाड़ले बेटे की बात जवान बेटी को साईकिल पर बैठाकर रोज शहर ले जाएगा सचमुच इसकी मति मारी गई है ।

माय तुनक कर बोली-हूं… जवान बेटी को साईकिल पर बैठाकर शहर ले जाएगा ।अरे लाज शरम है कि नहीं , कि सब धो धा के पी गया है ।अरे बाप होकर कैसी बात करता है ,अच्छी सीख- सलाह दे घर का काम काज सीखने बोल जो ससुराल जाकर उल्हन -उपराग ना सुनवाए । कहो भला अपने जात बिरादरी का कोई लड़का भी पढ़ने इतनी दूर शहर जाता है जो ई लड़की होकर जाएगी ।अरे ये रघुवा कोनो ऊंच-नीच हो जावेगी ना तो जीवन भर घर में बैठा कर रखना समझ गया।

रघु का मिजाज गरम हो गया ,आगे कुछ नहीं बोला। थाली में अभी रोटियां पड़ी हीं थी उसी में हाथ धो कर उठ गया।

सुमित्रा बोली- देखा माय! कितना गुस्सा है ई मरद को आधा पेट खाकर हीं उठ गया ऊपर से पानी भी डाल दिया थाली में।

तो क्या करूं तुम लोग चैन से खाने भी दोगी तभी तो पेट भर खा पाउंगा।

पारो भी खाना खाए बिना हीं चुपचाप जाकर सो गई । दादी जगाने गई तो कुछ नहीं बोली सिसक – सिसक कर रोने लगी।

दो दिनों तक घर में सब का गाल- मुंह फुला रहा तीसरे दिन रघु साईकिल को झाड़ पोछ कर तैयार किया और पारो को भी तैयार होकर स्कूल जाने बोला।

पारो स्कूल जाते समय मां और दादी को प्रणाम करने गई तो दोनों चुपचाप खड़ी रही कुछ नहीं बोली।

शहर के उच्च विद्यालय में पारो का नामांकन हो गया वह बहुत खुश थी मन लगाकर पढ़ने लगी और थोड़ा बहुत घर के कामकाज में भी हाथ बटांने लगी।

धीरे धीरे मां और दादी की नाराजगी भी दूर हो गई। दो महीने तक पारो अपने बापू के साथ स्कूल जाती रही और तीसरे महीने में जब स्कूल से छोटी वाली साईकिल मिली तो खुद हीं चला कर जाने लगी।

वह खूब मन लगाकर पढ़ाई करती रही, परिश्रम का फल मीठा होता है । दसवीं की परीक्षा में वह प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुई। उसके बापू तो खुश थे हीं मां और दादी भी खुश थी।

कुर्साकांटा हाई स्कूल में अब बारहवीं तक की पढ़ाई शुरू हो गई यह जानकर पारो बहुत खुश थी इसलिए उसने वहीं से आगे की पढ़ाई भी पूरी करनी चाही । रघु ने तो आगे की पढ़ाई के लिए खुशी-खुशी राजी हो गए पर मां और दादी ने फिर से वही राग अलापना शुरू कर दिया।

देख बेटा ! जमाना बहुत खराब है । लड़की सयानी हो गई है ,कहीं अच्छा सा लड़का देखकर ब्याह करा दे यदि पढ़ाई हीं करनी होगी तो शादी के बाद भी कर सकती है किसी उंच- नींच का डर तो नहीं लगा रहेगा ना?

रघु अपनी मां को समझा कर बोला देख माय! शादी ब्याह तो समय से हीं होगा ना ? अठारह साल से पहले शादी करना कानूनन जुर्म है अभी तो पारो का सत्तरह भी पूरा नहीं हुआ है।

तुम किस कानून की बात कर रहे हो बेटा! क्या कानून समाज में हो रहे उंच- नीच हरकत से बचाने आता है? जब इस तरह की कोई ओछी हरकत हो जाती है ना तब कानून अपना डंडा चलाने आता है। बहुत लोग तो बदनामी के डर से कानून तक जाते भी नहीं । समाज सिर्फ सरकारी कानून कायदे से नहीं चलता है सामाजिक नियमों से चलता है। इसलिए मैं कहती हूं अब पढ़ाई – उढाई का झंझट छोड़ और कोई अच्छा सा लड़का देखकर शादी करा दे।

सास की हां में हां मिलाती हुई सुमित्रा भी बोल पड़ी- यही बात तो मैं भी समझाना चाहती हूं माय ,पर यह मर्द लोग औरत की बात का कोई भेलू दे तब ना? मरद लोग क्या जानने गया कि दिनभर बेटी का घर से बाहर रहने से उसकी मां पर क्या-क्या गुजरता है। बेटी के घर से निकलते ही मन बेचैन हो जाता है जब तक वह लौट के नहीं आ जाती मन झटपटाता रहता है। यही तो फर्क होता है बेटा -बेटी में, बेटा कहीं चला जाए मन में डर भय नहीं रहता है पर बेटी का आंख से ओझल होते हीं मन बेचैन हो हो जाता है, दिन भर मन में भले बुरे ख्याल आते रहते हैं । पारो से साल दो साल छोटी सब लड़की ससुराल बस गई है ।अपनी हीं मुन्नी को देख लीजिए पारो से साल भर की छोटी है और दो-दो बच्चे की मां बन गई है।

रघु थोड़ा झुंझला कर बोला- बनने दो सुमित्रा ,मुझे दुनियां भर की भागवत- पुराण मत सुनाओ जिसे अपनी बेटी पर विश्वास नहीं होता वही ऐसा करता है मुझे अपनी पारो पर पूरा विश्वास है । जब तक वह बालिग नहीं हो जाती तब तक कोई शादी बियाह नहीं कराउंगा ।अभी बालिक होने में पूरे डेढ़ साल बांकी है तब तक इंटर कर लेगी उसके बाद हम अच्छा सा लड़का देखकर शादी करा देंगे यह मेरा अंतिम फैसला है आगे कोई कुछ नहीं बोलेगा समझी?

पिता का फैसला से पारो मन हीं मन बहुत खुश थी । यदि बापू अपना फैसला पर अडिग नहीं रहता तो पता नहीं क्या होता शायद अन्य लड़कियों की तरह उसे भी छोटी उम्र में हीं ससुराल जाना पड़ता।

पारो फिर से कॉलेज जाने लगी। कॉलेज में तो अनजान लड़के लड़कियों में दोस्ती आम बात हो गई है, पारो की भी दोस्ती अपने हीं बगल के गांव का लड़का संदीप से हो गई। संदीप अच्छा लड़का था वह पढ़ने में तेज और संस्कारी भी था, तभी तो पारो ने उससे दोस्ती की। हमेशा साथ-साथ कॉलेज आते -जाते पर कभी कोई ऐसी हरकत नहीं की जिससे पारो को बुरा लगे हां मासूमियत और अपनापन दिखाते दिखाते दोनों एक दूसरे के बहुत करीब हो गए। संदीप का साथ पाकर पारो कभी अपने आप को अकेली या असुरक्षित महसूस नहीं करती थी। अब किसी होनी अनहोनी का डर भी उसके मन में नहीं था, रोज आते जाते संदीप जो साथ में होता था । धीरे-धीरे यह अपनापन प्यार में बदल गया और दोनों एक दूसरे को पसंद भी करने लगे पर मुंह से कभी इस तरह की कोई बात निकलने नहीं दी।

पारो और संदीप को एक साथ आते-जाते गांव का कोई ना कोई देख हीं लेता था। फिर तो गांव में कानाफूसी भी होने लगी और फिर यही कानाफूसी धीरे-धीरे फुंसी से फोड़ा बन गई।

गांव घर के छोटे-मोटे लड़ाई – झगड़े होने पर लोग उल्हन – उपराग के रूप में पारो को आवारा बदचलन कहने लगे, फिर तो पारो की मां और दादी का छाती पीट-पीटकर रोना-धोना शुरू हो गया।

रघु के चचेरे भाई शंभू उससे कहने लगे देख भाई तुम अपना है इसलिए कहता हूं नहीं तो आजकल कौन किसकी चिंता करता है । गांव भर में पारो के बारे में लोग अनाप-सनाप बोलते रहते हैं ,सुन सुनकर कान पक जाता है। पता नहीं पारो किस लड़का के साथ कॉलेज आती -जाती है । लोग तरह – तरह की बातें करते हैं ,रास्ते में आते- जाते लोग जो देखेंगे वह तो बोलेंगे हीं ना। अधिक बदनामी हो गई तो शादी ब्याह कराने में भी दिक्कत होगी। अपनी जात बिरादरी के बारे में जानते हो कि नहीं ,राई का पहाड़ बना देते हैं। मेरा कहना मानो तो कोई अच्छा लड़का देखकर पारो की शादी करा दो। तुम अपने हो इसलिए यह सब कहता हूं नहीं तो आजकल कौन किसका भला चाहता है ,लोग तो जले पर नमक छिड़कने आ जाते हैं।

शंभू की बात का रघु ने कोई उत्तर नहीं दिया । शाम को पारो जब घर लौटी तो सब का उतरा हुआ चेहरा देखकर समझ गई कि किसी ना किसी के द्वारा आग तो लगाई गई है, तभी तो सब लोग गाल – मुंह फुला कर बैठे हैं । पारो को याद आया कि कल जब वह संदीप के साथ कॉलेज से आ रही थी तो रास्ते में शंभू चाचा मिले वे बाजार जा रहे थे। संदीप के साथ उसे आते देखकर कुछ बोले तो नहीं थे पर तिरछी नजरों से पलट- पलट कर बार-बार देख रहे थे, हो ना हो शंभू चाचा ने हीं यह आग लगाई है ।अपनी बेटी को तो पढ़ने दिया नहीं जीवन भर गाय गोबर, सानी -कुच्चा करवाता रहा ।बेचारी किसी तरह मेरे कहने पर गांव की स्कूल से आठवीं में पढ़ हीं रही थी कि तभी शादी करा कर ससुराल भेज दिया। छोटी उम्र में हीं दो-दो बच्चे की मां बन गई है ।जवान होने से पहले हीं बूढ़ी झांझर लगती है ।जो अपनी बेटी का भला नहीं होने दिया वह मेरा भला कैसे चाहेगा?

शाम में जब पारो लालटेन जलाकर पढ़ने बैठी तो बगल में रघु भी आकर बैठ गया। पारो के सर पर हाथ रख कर प्यार से बोला- बेटा ! मुझे तो तुम पर खुद से भी ज्यादा विश्वास है, पर कुछ लोग तुम्हारे बारे में अनाप-सनाप बोलते हैं। मैं तो किसी की बात पर ध्यान नहीं देता, विश्वास भी नहीं करता हूं । पर बेटा! तुम्हारी मां और दादी इन लोगों की बातों में आ जाती है, इसलिए गाल फुला कर बैठी है । मैं जो तुझ पर खुद से ज्यादा विश्वास करता इसे टूटने मत देना। सच-सच बता दें कि तुम किसके साथ कॉलेज जाती आती है? आज शंभू भी मुझे बहुत कुछ बोल दिया मैं चुप रहा क्योंकि मुझे अपनी बेटी पर पूरा विश्वास है।

पारो नजर झुका कर बोली-बापू संदीप एक अच्छा लड़का है । वह अपने ही बगल के गांव लक्ष्मीपुर का है। उसके पिता रहटमीना मध्य विद्यालय में शिक्षक हैं । वह मुझसे सीनियर है, पढ़ने लिखने में काफी मदद करता है। उसके साथ जाने आने से और कॉलेज में भी मैं खुद को सुरक्षित महसूस करती हूं ।आप अपनी बेटी पर विश्वास रखिए बापू, मैं आपके विश्वास पर आंच आने नहीं दूंगी । लेकिन दुख तो मुझे इस बात का है बापू कि मां और दादी को मुझसे ज्यादा विश्वास गांव के लोगों पर है।

दहलीज पर चौखट पकड़कर खड़ी सुमित्रा सब कुछ सुन रही थी। पास आकर पारो का हाथ पकड़ कर बोली- ऐसा मत कहो पारो, भला अपनी होनहार बेटी से ज्यादा दूसरे पर विश्वास क्यों करूं पर जमाना बहुत खराब है, डर लगा रहता है कहीं कोई अनहोनी ना हो जाए। कोई ऊंच-नीच हो गई तो ताने देने वाले को कैसे मुंह दिखाउंगी।

पारो की आंखें डबडबा गई। मां की ओर देख कर बोली- ऐसा कभी नहीं होगा मां ,यदि मुझसे कभी कोई गलती हो जाए तो मेरा गला दबा देना।

सुमित्रा की आंखों में भी आंसू आ गए, आंचल से पोछ कर बोली- नहीं रे तूं मेरी अच्छी बेटी है । मुझे तुझ पर पूरा विश्वास है जा मन लगाकर पढ़ और कुछ बन के दिखा दे जलनडाही सबको।

रघु को पहली बार एहसास हुआ कि मां, मां होती है। भले हीं उपर से कठोर हो पर कितना प्रेम करती है अपनी बेटी से।

सुबह जब सुमित्रा गाय खूंट कर आ रही थी तो रास्ते में बकरी खूंटने जा रही शंभू की पत्नी परबत्ता बाली से मुलाकात हो गई। वह सुमित्रा को रोककर कहने लगी, दीदी पारो कॉलेज गई है ना?

हां ! कॉलेज गई है तो क्या हुआ?

हुआ तो कुछ नहीं दीदी, पर क्या आपको नहीं पता कि गांव के लोग अपनी पारो के बारे में क्या -क्या बोलते हैं ? मैं तो शरम के मारे गांव घूमना हीं छोड़ दिया ।अपनों के बारे में यह सब सुनना अच्छा नहीं लगता है ना?

सुमित्रा का पारा गरम हो गया । गरज कर बोली क्या किया है मेरी बेटी ने? पढ़ने जाती है ना इसलिए जलनडाही सब तो जलवे करेगी ना, तुझे क्यों बोलती है, उढ़री सब को हिम्मत है तो मुझे आकर बोले ना राग पकड़ कर फाड़ ना दिया तो एक बाप की बेटी नहीं। मैं नहीं जानती क्या कि जलनडाही सब का बेटा- बेटी क्या -क्या गुल खिलाता है ? बाल बच्चा को पढ़ाने का औकात तो है नहीं नाभी का घाव सुखा नहीं कि भेज दिया दिल्ली पंजाब कमाने और खुद दारू गांजा पीकर दूसरे की चुगल खोरी करता है ।और तूं भी सुन ले परबतिया कोई तुझसे कुछ कहे तो मेरे पास भेज देना पारो अनाथ नहीं है जो तुझ से कोई कुछ कहे अभी उसका बाप माय जिंदा है।

दोनों में बहस हो हीं रही थी कि उधर से शंभू भी आकर बोलने लगा- अरे -अरे क्या बात है, सवेरे- सवेरे भौजी का पारा गरम क्यों हो गया?

शंभू की पत्नी बोली- देखिए ना जी, पारो के बारे में लोग अनाप-सनाप बोलते हैं ना वही बात दीदी से बोली तो बुरा मान गई।

अरे इसमें बुरा मानने की क्या बात है भौजी ! मैं भी रघु भैया से बोला कि पारो बड़ी हो गई है कोई अच्छा सा लड़का देखकर उसका ब्याह करा दे, पर भैया कुछ नहीं बोला । मेरी नजर में तो लड़का है भौजी, अपनी मुन्नी का देवर। बड़ा अच्छा लड़का है। महीने का दस हजार कमाता है पंजाब में।

शंभू की बात सुनकर सुमित्रा का पारा और चढ़ गया बोली- जो बोल दिया सो बोल दिया फिर कभी ऐसा राय विचार मत देना, मैं नहीं जानती कि मुन्नी का ससुराल में क्या-क्या होता है, वैसे नहीं रात बिरात भाग कर आती है। उसका जीवन तो नरक बना हीं दिया तुम लोगों ने अब मुझे राय विचार देते हो ? छोटी उम्र में शादी , दो दो बच्ची की मां और अब जब झांझर हो गई बेचारी तो दूल्हा दूसरे के घर मुंह मारता फिरता है। जीते जी मार दिया मुन्नी को तुम लोगों ने, मुझे सब पता है तुम लोग नहीं बताओगे तो क्या मुझे पता नहीं चलेगा? मेरी मझली भौजी भी उसी गांव की है । इतना कहकर गुस्से से लाल पीयर होती हुई सुमित्रा दन दनाती हुई चल दी। शंभूऔर उसकी पत्नी खड़े-खड़े टुकुर टुकुर देखते रह गए।

रात में सुमित्रा जब चूल्हा घर में खाना बना रही थी तो अचानक शंभू के आंगन से रोने की आवाज सुनकर चौक गई ।हो ना हो शंभू फिर से दारू पीकर परबतिया को मार -पीट कर रहा होगा। वह ड्योढ़ी पर आ कर कान लगाकर सुनने लगी ।सुबह की बात को लेकर उसके आंगन में जाने का मन तो नहीं कर रहा था पर रोने की आवाज सुनकर उसे रहा नहीं गया वह पारो को आवाज देकर बोली- पारो! जरा लालटेन लेकर आना तो देखें परबतिया क्यों रो रही है।

पारो लालटेन दिखाती हुई बोली- छोड़ो ना मां वहां जाकर क्या करेगी शंभू काका दारू पीकर काकी के साथ मारपीट कर रहे होंगे।

सुमित्रा बोली- बेटा ! भले हीं वे लोग हमसे जलते हैं पर हैं तो अपने ना चल, चल कर देखते हैं क्या हुआ।

शंभू के आंगन का दृश्य देखकर सुमित्रा दंग रह गई। मुन्नी ससुराल से भाग कर आई थी साथ में दोनों बच्चे भी थे। बड़ी बेटी दो साल की और गोद में आठ महीने का बेटा। सुमित्रा को देखते हीं मुन्नी अपनी मां को छोड़ कर उसके गले से लिपट कर जोर- जोर से रोने लगी । काकी मैं जीते जी मर गई, लुट गई काकी ,बड़का काका ने तो बहुत समझाया था बाबू को पर बाबू किसी का नहीं सुना गाय गुरु की तरह कसाई के घर भेज दिया। आज तक मार खा खाकर भी उस कसाई के घर जैसे तैसे जी रही थी पर वह मुंहझरका भाग गया उस करयठबी के साथ। अब मैं वहां रह कर क्या करूंगी काकी, मैं जहर माहुर खाकर जान दे दूंगी पर उस कसाई के घर नहीं जाऊंगी।

पत्नी और बेटी को इस तरह रोते देखकर शंभू का भी कलेजा दहल गया। गमछा से आंसू पोछ कर बोला- चुप हो जा मुन्नी मत रो इस तरह ।कल हीं भैया को साथ लेकर जाउंगा, सरपंच मुखिया सब को बुला कर पंचेती करूंगा नहीं मानेगा तो केस कर दूंगा।

मुन्नी बाप के कंधे पर सर रखकर रोती हुई बोली- क्या करेंगे सरपंच मुखिया और क्या करोगे केस करके बाबू ! मेरा उजड़ा हुआ घर कौन बसा देगा? बहुत भारी लगती थी ना बाबू! इसलिए ना बचपन में हीं ससुराल भेज कर अपना भार हल्का कर लिया। अब नहीं बनूंगी किसी का भार, खुद मर जाऊंगी और अपने बच्चे को भी मार दूंगी लेकिन दोबारा उस गांव में पैर नहीं दूंगी । लोग कहते हैं कि बाप के घर से डोली और पति के घर से अर्थी उठती है औरत की, पर जब पति हीं छोड़ कर भाग गया तो उसका घर कैसा, क्या पता वहां मरने पर अंतिम संस्कार भी होगा या नहीं? यहां मारुंगी तो कम से कम बाप- पीती का कंधा तो नसीब होगा ।अपनों के कंधे पर श्मशान भी चली गई तो मन को शांति मिलेगी।

मुन्नी की मां रोती हुई सुमित्रा का हाथ पकड़ कर बोली- देखो ना दीदी क्या- क्या बोल रही है मुन्नी ,क्या हो गया दीदी? कैसे ढाढस दूंगी, आप हीं समझाओ ना दीदी।

सुमित्रा अपने आंचल से मुन्नी की सुखी आंखें पोछती हुई बोली- पागल हो गई है क्या जो इस तरह अनाप-शनाप बोल रही है ? देख तो बच्चे कैसे बिलख- बिलख कर रो रहे हैं।

रोने दे काकी! इसे भी अपनी फूटी किस्मत पर रो लेने दे अब कौन संभालेगा? किसका मुंह देख कर जिएगा?

चुप पगली ,ऐसे नहीं बोलते बच्चे हैं सदमा लग जाएगा। हम सब हैं ना ?और मरे तेरे दुश्मन। तूंं अकेली थोड़ी है हम सब हैं ना ? सब ठीक हो जाएगा। चुप मेरी कसम जो अब रोई तो।

हाथ में लालटेन लिए आंगन में खड़ी पारो सोचने लगी क्या हम लोग गरीब हैं इसलिए यह सब झेलना पड़ता है? या फिर अशिक्षा के कारण हम अपना भला बुरा नहीं समझ पा रहे हैं। गरीबी कहां नहीं है, अगड़ी समाज में भी तो बहुत गरीब लोग हैं पर उनका जीवन स्तर इतना निम्न तो नहीं है ? उन्हें अपने भले- बुरे का तो भली-भांति ज्ञान है। निश्चय हीं अशिक्षा के कारण हीं हमारे समाज की ऐसी दुर्दशा है। पारो आंसू पोछकर मन हीं मन संकल्प लिया कि यदि भविष्य में मैं कुछ बन गई, यदि मुझे कभी समाज की सेवा करने का मौका मिला तो मैं अपने समाज की इन बुराइयों को अवश्य दूर करने की कोशिश करूंगी चाहे इसके लिए मुझे जो भी करना पड़े सब करूंगी पर समाज को इन बुराइयों से मुक्ति दिलाकर रहूंगी।

एक महीना बीत गया पर मुन्नी के ससुराल से कोई उसका खोज खबर लेने नहीं आया। आता भी कौन पति तो मुंह काला कर भाग हीं गया देवर पंजाब में ,एक बूढ़ा ससुर , बेचारा खटिया पर पड़ा -पड़ा खुद हीं अपनी संतान द्वारा दी गई पीड़ा से कराह रहा होगा। शंभू कई बार मुन्नी का ससुराल जाना चाहा पर पत्नी और बेटी ने किरिया कसम देकर रोक दिया। जीवन भर बेटी का भार भला कौन उठा सकता है? उस पर दो-दो बच्चे भी ।एक दिन घर में बिना कुछ बताए शंभू मुन्नी का ससुराल चला गया और उसके ससुर से बोला कि कुछ ना कुछ करके अपनी बहू और बच्चे को ले आइए नहीं तो हम केस कर देंगे पाप किया है आपका बेटा और भोगे हम क्यों?

शंभू की धमकी भरी बात सुनकर मुन्नी का ससुर सोच में पड़ गया वह सोचने लगा कि जब अपना हीं बेटा कुपुत्र निकला तो दूसरे को दोष देने से क्या फायदा कुछ ना कुछ तो करना पड़ेगा वरना इस उम्र में जेल की सजा काटनी होगी। बेचारा हाथ जोड़कर शंभू के आगे गिड़गिड़ाता हुआ बोला -समाधी जी! मेरा बेटा तो जाहिल शैतान निकला इससे अच्छा तो मर जाता रो धोकर किसी तरह संतोष कर हीं लेते, इस तरह शर्मिंदा तो नहीं होना पड़ता। आप चाहे तो दो चार जूते मार दीजिए गालियां दीजिए, बेटा ने जो गाली दी उसके आगे सब कम हीं होगा ।मैं बहू बच्चे को लाने के लिए तैयार हूं ।वह तो शर्म के मारे मैं इतने दिनों तक नहीं जा पाया।

मैं कल हीं आपके साथ चलूंगा और हाथ पैर पकड़कर बहू को ले आऊंगा आप गुस्सा थूक दीजिए।

दूसरे दिन जब समधी को साथ में लेकर शंभू घर गया तो कोहराम मच गया। मुन्नी जार बे जार रोने लगी फिर से वही रट्ट जान दे दूंगी पर वहां पैर नहीं दूंगी। मुन्नी की मां भी पति पर बरस पड़ी। ससुराल वाले तो कसाई हैं हीं बाप भी कसाई बन गया। महीने भर में ही बेटी इतनी भारी हो गई जो जाकर लिवा लाए नरक के देवता को। कमा कर खिलाना होगा जीवन भर यही डर है ना ? मत खिलाना मैं हूं ना ? मेहनत मजदूरी करूंगी, गांव में कुट्टी पिस्सी कर लूंगी पर अपनी बेटी को उस नर्क में नहीं जाने दूंगी । जब घरवाला हीं नहीं रहा तो ससुराल जाकर हीं क्या करेगी। वहां भी जब मेहनत मजदूरी करनी हीं पड़ेगी तो फिर माय बाप के पास रहकर क्यों नहीं कर लेगी? सर पे मां-बाप का हाथ तो रहेगा?

रोने धोने की आवाज और हो हल्ला सुनकर गांव के कई लोग जमा हो गए ।आंगन में खचाखच भीड़ और जितने मुंह उतनी बातें सुनकर मुन्नी का ससुर वहां से भागना हीं मुनासिब समझकर सबसे नजर बचा कर खिसक गया।

कई महीने बीत गए। मुन्नी और उसके मां-बाप के मन में आशा की थोड़ी बहुत किरणें बची हुई थी। उन्हें उम्मीद थी कि अपनी गलती का एहसास होगा तो वह जरूर लौट आएगा और मुन्नी से मांफी मांग कर उसे मना कर ले जाएगा पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। शंकर के मन में कई बार विचार आया कि थाने में रिपोर्ट दर्ज करा दे पर मुन्नी ने साफ मना कर दिया । उसका कहना था कि जब ससुराल में कुछ है हीं नहीं तो केस मुकदमा करके क्या होगा। दो चार धुर जमीन में टूटी फूटी झोपड़ी और एक बूढ़ी गाय के सिवा है हीं क्या। बूढ़े ससुर को क्यों मुसीबत में डाले बेचारा मरा हुआ तो है हीं। दो जून की रोटी भी पेट भर नसीब नहीं हो रही है।

पत्नी और बेटी की बात धीरे-धीरे शंकर के समझ में भी आ गई। अब वह जी तोड़ मेहनत करने लगा, दारु पीने की बुरी आदत भी छूट गई। बेटी के साथ – साथ उसके दोनों बच्चों के भार जो कंधे पर थे।

मुन्नी अपने दरवाजे पर खड़ी होकर हमेशा पारो को कॉलेज से आते-जाते देखती रहती थी ।बचपन में दोनों साथ-साथ गांव के स्कूल में पढ़ने जाती थी । कितना अंतर है दोनों के जीवन में, एक अपने कर्म पथ पर तेजी से दौड़ती हुई लक्ष्य की ओर उड़ान भर रही है और दूसरी शुरू होने से पहले हीं सब समाप्त हो गया। सूखे वृक्ष की तरह अटल अविरल खड़ी होकर मानो किसी तूफान की प्रतीक्षा कर रही हो पता नहीं कब अस्तित्व हीं मिट जाय। काश! मेरा बाबू भी बड़का काका की तरह समझदार होते तो मेरा जीवन शुरू होने से पहले हीं नहीं उजड़ता । कैसे पारो एक आजाद पंछी की तरह अपनी मंजिल पाने के लिए उन्मुक्त गगन में निर्विकार होकर उड़ान भर रही है और एक मैं…….।

मुन्नी की सूखी- मुर्झायी आंखों से आंसू की बड़ी-बड़ी बुंदे टपकने लगी।

मुन्नी की चिंता पारो को भी हो रही थी। इतनी छोटी उम्र में इतना कुछ हो गया । कैसे गुजारेगी पूरी जिंदगी? क्या होगा उसके दोनों बच्चों का? हां इस बात की खुशी थी कि शंकर काका अब सुधर गया है एक जिम्मेदार पति और पिता की जिम्मेदारी बखूबी निभा रहा है, पर इससे पारो का क्या होगा ? उसके जीवन में जो पतझड़ आया है क्या उसमें अब कभी बाहर आ सकती है?

पारो को इस बात का एहसास हो गया था कि मुन्नी उसे रोज घंटों खड़ी होकर आते -जाते क्यों देखती रहती है? शायद मेरी जगह खुद को देखने की कल्पना करती है। भले हीं मुंह से कुछ नहीं बोलती है। बोलेगी भी तो क्या वक्त से इस तरह असमय की मार पड़ी है कि जीवन जीने की उम्मीद हीं छूट गई।

शाम में पारो मुन्नी का हाल – चाल पूछने उसके आंगन गई तो बात – बात में हीं उसने मुन्नी से पूछ लिया कि तुझे याद है बचपन में जब हम लोग स्कूल पढ़ने जाते थे तो अनूप सर हमेशा हिंदी में एक कविता सुनाते थे..।

मुन्नी टुकुर – टुकुर पारो का मुंह देखती हुई हां में सिर हिला दी।

पारो फिर उसके कंधे पर हाथ रख कर बोली- बोलो मुन्नी क्या तुमको वह कविता आज भी याद है ना?

मुन्नी धीरे से बोली हां याद है,

पारो चक्कर बोली तो सुना ना मुन्नी, मैं कुछ- कुछ भूल गई हूं..।

मुन्नी धीरे-धीरे गुनगुनाने लगी-

जीवन तो एक झरना है,

झर- झर झरता रहता है।

बाधाएं तो हरदम आती जाती,

पर जीवन चलता हीं रहता है।।

कभी ना रुकता अविरल चलता,

पग -पग पर ठोकर खाता है।

कभी इधर से कभी उधर से,

राह बना हीं लेता है।।

मंजिल है कोसों दूर अभी,

विश्राम कहां कर पाता है।

चलते-चलते आखिर एक दिन,

सागर को पा हीं लेता है।।

जीवन तो एक झरना…..

मुन्नी की कविता सुनकर शंकर खुश होकर बोला वाह !मेरी बिटिया को बचपन की पढ़ी हुई कविता अभी तक याद है।

पारो बोली- काका यह सिर्फ एक कविता नहीं बल्कि हमारे जीवन की एक कहानी है। जिस तरह झरना हर विघ्न बाधा को पार कर आगे बढ़ता रहता है उसी तरह हमें भी जीवन में हमेशा आगे बढ़ते रहना चाहिए। जिंदगी रुकने से नहीं बल्कि आगे बढ़ने से पूरी होती है। मुन्नी के साथ जो कुछ हुआ वह एक हादसा था उसे भुलाकर आगे की जिंदगी के लिए कुछ करना चाहिए।

शंकर पारो के पास जाकर बोला- तुम क्या कह रही हो पारो? यह किताब उताब की कहानी कविता मेरे समझ में नहीं आ रही है। मुन्नी को क्या करना चाहिए साफ-साफ बता ना पारो?

पारो बोली- काका मुन्नी मुझसे भी छोटी है, इसके साथ जो कुछ भी हुआ उसे पकड़ कर क्यों बैठी रहेगी? इसे भी आगे बढ़ने के लिए कुछ करना चाहिए…

तो क्या करेगी बेटा! क्या मुन्नी को अपने जीवन में आगे बढ़ने के लिए कोई रास्ता है?

क्यों नहीं, एक नहीं अनेक रास्ते हैं बस थोड़ा सा हिम्मत और धैर्य चाहिए..।

मुन्नी की मां पारो की बात सुनकर उसके सर पर हाथ रख कर बोली- क्या रास्ता है बेटा ! तू हीं बता, तूं तो पढ़ी लिखी है, समझदार है, है कोई रास्ता जिस पर चलकर मेरी बेटी की उजड़ी हुई जिंदगी में थोड़ी सी खुशी आ जाए ? मेरी बेटी बिल्कुल टूट चुकी है इसके लिए तूंं हीं कुछ कर पारो जीवन भर तेरे उपकार का एहसानमंद रहूंगी।

मुन्नी बगल में खड़ी रो रही थी। उसे देखकर पारो की आंखें नम हो गई आंसू पहुंचकर बोली काकी मुन्नी मेरी बहन है इस हाल में इसे देखकर मुझे भी बहुत दुख होता है, पर मुन्नी के लिए जो रास्ता है उस पर चलने के लिए इसे साहस और धैर्य चाहिए।

मेहनत मजदूरी से जिंदगी की तस्वीर नहीं बदलती बस किसी तरह पेट भर जाता है तो हम समझने लगते हैं कि जिंदगी कट रही है। कटने और बदलने में बहुत अंतर होता है। मेरा मानना है कि मुन्नी को फिर से पढ़ाई शुरू करनी चाहिए। शिक्षा हीं एक ऐसा रास्ता है जिस पर चलकर आदमी जात-पात ऊंच-नीच हर तरह का भेदभाव मिटा सकता है। शिक्षा का प्रकाश जिसके जीवन में आ जाए उसके जीवन में फिर कभी कोई अंधेरा शेष नहीं रहता।

पर पारो !मुन्नी दो-दो बच्चे की मां है अब इस उम्र में फिर से स्कूल कॉलेज की पढ़ाई करनी संभव है क्या?

सब संभव है काकी, इसकी उम्र हीं क्या हुई है ।शादी ब्याह, बच्चे सब एक तूफान की तरह जिसके जीवन में आया ।मुझसे छोटी है , मैं अभी पढ़ रही हूं तो मुन्नी क्यों नहीं पढ़ सकती ? बस आपको थोड़ा साथ देना होगा।

दूंगी पारो मैं साथ दूंगी ना, अपनी बिटिया की साया बनकर इसके साथ चलूंगी इसका हाथ पकड़ कर फिर से चलना सिखाउंगी। बच्चे की परवाह मत करो इसकी हर जिम्मेवारी मैं लूंगी बस समझ लो कि यह मुन्नी के बच्चे नहीं मेरे बच्चे हैं।

शंकर भी आंसू पोछकर बोला हां पारो मैं मुन्नी को मजदूरी करने नहीं दूंगा ,मैं दिन-रात एक करके कमाउंगा। बस मेरी बेटी की बिखरी हुई जिंदगी एक बार फिर से सिमट कर आगे बढ़े मुझे जो करना पड़ेगा सब करूंगा।

अपने मां-बाप और पारो की बात सुनकर मुन्नी को लगा कि वह शायद सुबह का कोई अच्छा सपना देख रही है ,उसके बंद पिंजरे का दरवाजा धीरे-धीरे खुल गया वह पिंजरे से बाहर आ गई और बहुत दिनों से कैद अपने पंखों को फड़फड़ा कर आसमान में उड़ान भरने की कोशिश कर रही है।

दूसरे हीं दिन पारो मुन्नी को लेकर स्कूल गई । मुन्नी की आपबीती सुनकर अनूप सर बहुत दुखी हुए पर यह जानकर खुशी भी हुई कि यह सब भुलाकर मुन्नी फिर से आगे बढ़ना चाहती है।

अनूप सर ने भी मुन्नी से वही कविता सुनाने के लिए कहा और मुन्नी ने पूरी कविता ठीक उसी तरह सुना दी जिस तरह बरसों पहले सुनाया करती थी।

मुन्नी सब कुछ भुला कर फिर से स्कूल जाने लगी ।वह पढ़ना चाहती है अपने जीवन में आगे बढ़ना चाहती है यह सब जानकर पारो के मां-बाप को और गांव वाले को भी बहुत अच्छा लगा।

रूढ़िवादी परंपरा के पोषक सदियों से अज्ञानता के अंधकार में पल रहे इस मलिन बस्ती में भी धीरे-धीरे ज्ञान का दीपक जलने लगा। जलता भी क्यों ना उसमें पारो जो तेल बाती डाल रही थी।

मुन्नी की बिखरी हुई जिंदगी फिर से सवरने लगी, छोटी उम्र में शादी बालिग होने से पहले हीं दो-दो बच्चे की मां और फिर अचानक पति का छोड़कर भाग जाना क्या-क्या नहीं सहना पड़ा बेचारी को । अब जब फिर से जिंदगी को एक नई राह मिली तो मानो पतझड़ में बाहर आ गई।

दसवीं की परीक्षा पास कर आगे की पढ़ाई के लिए मुन्नी पारो के साथ शहर जाने लगी। पारो और मुन्नी की देखा -देखी में गांव की अनेक लड़कियां शहर में जाकर पढ़ाई करने लगी । जब साईकिल चलाती हुई लड़कियां झुंड में निकलती तो सब देखने लगते।

कितना बदल गया है यह मलिन समाज। क्या यह वही गांव है जहां पहले लड़कियां गांव से बाहर जाती थी तो मेहनत मजदूरी करने हाथ में कचिया – खुरपी लेकर पर अब सुंदर और साफ-सुथरे स्कूल वेश में पीठ पर बैग लटकाए साईकिल चलाती हुई किसी बाबू बबुवान टोले की लड़कियों से कम नहीं दिखती है। सचमुच शिक्षा का प्रकाश हीं हर अंधकार को दूर कर सकता है ।जहां यह प्रकाश फैल गया वहां फिर कभी अंधेरा नहीं होता।

आज गांव में उत्सव का माहौल था। पहली बार इस मलिन बस्ती को आधुनिक प्रकाश से नहलाया गया। गांव के सब लोग आनंद मग्न हो रहे थे ।सब एक दूसरे से कह रहे थे अरे भाई! आपने सुना अपनी पारो वीडियो बन गई है।

आज इस मलिन बस्ती की खुशी में शामिल होने के लिए पूरा गांव उमड़ पड़ा।

अनादि काल से पाल रहे जात-पात ऊंच-नीच की वेडियां सब टूट चुकी थी।पारो के माता-पिता को बधाई देने वालों का तांता लग गया। जो ऊंची बिरादरी के लोग सिर्फ मजदूर लेने के लिए इधर पैर रखते थे वही लोग आज हाथ में माला लिए खड़े थे। जो भी बड़े-बड़े लोग मंच पर जाते पारो और उसके माता-पिता का जी खोलकर गुणगान करते।

देर काल तक भाषण चलता रहा अंत में जब पारो संबोधन के लिए खड़ी हुई तो तालियों की गड़गड़ाहट से आसमान गूंज उठा। पारो का संबोधन किया था वह तो अंधकार में प्रकाश फैला रही थी । सब भावविभोर हो गए। अंत में उसने अपनी सफलता का श्रेय अपने माता-पिता को देती हुई बोली- मुझे याद है ,जब बापू मुझे साईकिल पर बैठाकर कॉलेज की पढ़ाई के लिए शहर ले जा रहे थे तो मेरे लिए वह सिर्फ एक साईकिल नहीं एक उड़ान थी उसी उड़ान पर बैठकर मेरे सारे सपने सच हुए। यदि बापू का साथ ना होता तो आज मैं कुछ भी ना होती। भले हीं मेरा बापू पढ़ा – लिखा नहीं है पर शिक्षा का महत्व को उसने जिस तरह समझा शायद हीं कोई और समझ सकेगा। आज मैं सभी बच्चों के माता-पिता से विनती करती हूं कि सभी मेरे बापू जैसे बने ।

मंच पर बैठे रघु अपने आंसुओं को अधिक देर तक नहीं रोक पाए । सच हीं तो कहा गया है कि दुख के आंसू को भले हीं लोग पी जाते हैं पर खुशी के आंसूओं को लाख रोको पर वे छलक हीं जाते हैं।।

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रचनाकार

Author

  • अरुण आनंद

    कुर्साकांटा, अररिया, बिहार. Copyright@अरुण आनंद/ इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

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