ज़िन्दगी के इस सफ़र में
धूप भी है- छाँह भी ।
ख़्वाब फूलों के संजोना
मुस्कुराना आँसुओं में
हर्ष में पलकें भिंगोना
इस कदम पर ‘वाह’ है तो
उस कदम पर ‘आह’ भी ।
गा रहे झरने कहीं पर
कहीं मरुथल की तपन है
थकन है ,गति की तृषा भी
लगी मंज़िल की लगन है
लुभाते बन्धन सुनहले
मुक्ति की है चाह भी ।
कभी पतझड़ की उदासी
कभी वासन्ती नज़ारे
कभी जलता जेठ सिर पर
कभी सावन की फुहारें
चल रहे हैं इस डगर पर
भिखारी भी – शाह भी ।
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