समाज अब
समाज नहीं
रह गया है
यह तो सजावट का
एक बाजार बन गया है
हथियार बन गया है
रंगबिरंगे बोर्ड पर अब
अपना अहसास टंग गया है
खोजते फिरते हैं हम
अपनी पहचान खो गया है
अब तो अकेलों की भीड़ में
इंसानियत ही खो गई है
बोर्ड की भाषा ही लुभा रही है
इंसान तो बिकने वाली
बाजार की चीज बन गया है
इसकी भाषा बदल रही है
इसकी परिभाषा बदल रही है
इसके मन की संवेदनाओं का
संदेश बदल गया है
बिकते इंसानों का
मोलभाव हो रहा है
मन की बात भी
अब घात बन गई है
विश्वास खो गया है
ढूंढते ढूंढते क्या खोज रहा था
अब तो यह याद भी नहीं आता !
देखे जाने की संख्या : 99