कोरोना महामारी के द्वितीय चरण के भयावह दिनों के कुछ शब्द चित्र
1.
सड़कों पर बेख़ौफ़ टहल रही है मौत |
दिन होते ही पसर जाता है एक निस्तब्ध सन्नाटा,
जिसे निगल लेती है एक भयानक रात
शाम होने से पहले |
अपने दरबों में दुबक गए हैं लोग |
यह कैसा खौफ है, जिसकी गवाह हैं
सिर्फ चटकती पुलिस की लाठियाँ |
2.
यह कैसा खौफ है कि
हिल गए हैं बड़े-बड़े राष्ट्र नायक
दुनिया के किसी भी कोने से
साफ़-साफ़ पढी जा सकती है उनकी घबड़ाहट,
महसूस किये जा सकते हैं उनके काँपते पाँव |
ग्लोब पर खड़ा एक आदमी दे रहा है नसीहतें |
कोई भी इस सन्नाटे को भेदने की जुर्रत न करे |
इन दिनों देर रात तक जगती है सोशल मीडिया
लगाये जाते हैं राष्ट्रनायकों की बदलती भंगिमाओं के अर्थ
एक पैर पर क्यों खड़ा है यह आदमी ?
कहाँ गिरवी है इसका दूसरा पैर ?
इसे पहले उठा लेना था अपना बायाँ पैर |
तब इस तरह नहीं हिलता यह आदमी |
3.
अचानक बेमानी हो गए हैं सारे धार्मिक आचार |
किसी अँधेरी सुरंग का रास्ता दिखाती है,
हर सुबह मस्जिद की अजान और
मंदिर की घंटियों की आवाज
तालाब के थके पानी में उतरकर
किनारे तक फैलने लगती है कई वृत्तों में |
अचानक बदल गया है बहुत कुछ
जैसे पक्षियों से बिना दुभाषिए के
अब बात करती हैं हवाएँ
जैसे फूलों ने पहली बार सीखा है,
बातें करना अपने ही रंगों से |
कोई भी अब छू सकता है
सूरज की सफेद रोशनी में नहाकर खड़े पहाड़ों को
सड़कें बतिया सकती हैं अपनी बगलगीर सड़कों से |
चौराहों पर खड़ी मूर्तियाँ टहल कर जा सकती हैं दूसरे चौराहे तक |
4.
एक आदमी की नींद को निगल गयी है भूख
एक आदमी बरगलाकर कर ले आया है
दो दिनों की जरूरत का अनाज |
उसकी नींद में खलल डालती है
अपने पति से झगड़ती पड़ोस की औरत |
5.
बाहर बदल रहा है सबकुछ
भीतर बस एक फटा सा उजास |
बढ़ते आकड़ों में मायने बदल रही है मौत
भूख से बड़ी हो गयी है ज़िंदगी की जद्दोजहद |
बस एक करवट भर है दिन और रात |
मित्र दिखाते हैं तुलसी ने पहले ही
लिख दिया था सबकुछ,
चौदह साल के बालक ज्योतिषी ने
डेढ़ साल पहले ही कर दी थी भविष्यवाणी |
जारी हैं जप-तप, हवन और यज्ञ
एक साथ वायरल हो रही हैं आशंकाएँ और उम्मीदें |
पेड़ों से सहम कर चिपटे हैं चमगादड़
आखिर कब तक लौटेगी ज़िंदगी ?
मौत कबतक वापस लौटेगी गुफाओं में,
क्या मृत्यु को टाला नहीं जा सकता
अगली शताब्दी तक |