एक “मैं”
दूसरे “मैं” के साथ ,
बैठ बात कर रहे थे l
“मैं” बोल रहा था बिना जुबां चलाये ,
और मैं सुन रहा था बिना “हुंकारी” भरे ll
किसी बात पर सहमती हो रही थी ,
किसी बात पर मौन द्वंद हो रहा था ll
पर जो हो रहा था,
घर के अन्दर हो रहा था ll
बाहर सन्नाटा था,
अन्दर भी शायद सन्नाटा जैसा था ll
गुफ्तगू लंबी थी, पर वक्त ठहरा हुआ था ,
वार्ता सच्ची थी , पर मन भटका हुआ था ll
“मैं” “मैं ” से बोल कर चुप हो जा रहा था ,
और “मैं ” “मैं” की बात सुन कहीं खो सा जा रहा था ll
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