बहुत रस लिया पर-निन्दा में
ख़ुद में कब झाँकेंगे हम?
तन्द्रिल, निद्रित रहे आज तक
नकली रुदन,हास नकली है
चढ़ा मुखौटा चेहरे पर
अपमानित सच निपट अकेला
आदृत झूठ बना रहबर
सुविधाओं के पीछे पागल
रहे भागते तेज क़दम !
बहुत पोथियाँ पढ़ लीं,लेकिन
छूट गया ‘ ढाई आखर ‘
बाहर-बाहर स्वांग हर्ष का
भरा अकेलापन भीतर
स्वार्थ-नाद में डूब रहा है
जीवन-मूल्यों का सरगम !
सुख के साज जुटाये इतने
मन में तोष कहाँ तिलभर
देखे अनगिन सुखद नज़ारे
फिर भी प्यासी रही नज़र !
भस्मासुरी कामनाएँ,बस
कर डालेंगी कभी भसम !
अंधकार का ज़ोर बढ़ रहा
ज्योति और हम फैलाएँ
जीवन की क्यारी में कुछ तो
कीर्ति-बीज हम बो जाएँ
ख़ुशबू बिखराते फूलों को
क्यों हो मुरझाने का ग़म ?
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