उड़ान इतनी आसान न थी,
न था कोई साथ।
सूखे पत्ते को जीवंत करना,
थी जैसे कोई बात।
अड़चनें थी, फिर भी उम्मीद थी,
अंधियारे में जैसे कोई जलता सा दिया।
तूफान भी था, समुद्र में हलचल भी,
डर भी था, फिर भी एक उम्मीद थी।
मैं चलती रही, राह बनते रहे,
विश्वास बढ़ता गया, मन तीव्र उद्घोष करने लगा।
व्याकुल, वेग लिए,
नित नए संभावनाएं तलाशने लगा।
मंजिल की और बढ़ते हुए,
ये जीवन नए संघर्षों को झेलता गया।
दिन, सप्ताह, साल और उम्र,
सब तकाजे में बैठे रहें,
और मिली आजादी की उड़ान।
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