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कोई मौसम हो

कोई मौसम हो,जाने क्यों पतझर लगता है! अपने घर में ही अनजाना-सा डर लगता है! कितना छोटा और अनिश्चित कितना जीवन ऊब, उदासी,उलझन कितनी-कितनी अनबन

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कीर्ति-बीज बो जाएँ !

बहुत रस लिया पर-निन्दा में ख़ुद में कब झाँकेंगे हम? तन्द्रिल, निद्रित रहे आज तक आख़िर कब जागेंगे हम? नकली रुदन,हास नकली है चढ़ा मुखौटा

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यह जीवन पथ आसान नहीं।

यह जीवन पथ आसान नहीं। झंझा झकझोरती है पल-पल, अमावस्या की काली रातों में, है गात ,कांप जाते देखो- हीम मिश्रित ठंडी वातों से। कंपकंपाती

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साँसों की आग

अँधेरा कमरे को लील रहा प्रकाशदात्री पुस्तकें अदृश्य हैं ! टटोलता हूँ मोमबत्ती ढूँढता हूँ माचिस मुश्किल से घिसता हूँ तीलियाँ कई बार कोशिश बेकार

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केवल वंचना है!

रोक रोने पर,यहाँ हँसना मना है कहाँ जाएँ , वर्जना ही वर्जना है ! ठोकरों में दर-ब-दर है भावना आदमी के सिर चढ़ी है तर्कना

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मान बेच कर सुविधा पाना-तौबा-तौबा

मान बेच कर सुविधा पाना-तौबा-तौबा साहब के तलवे सहलाना- तौबा-तौबा ! मिहनत-मजदूरी का रूखा-सूखा अमृत हया गँवा कर हलवा खाना-तौबा-तौबा! गली-गली में, गाँव-शहर में,डगर-डगर में

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मछली-पोखर

फेंकते हैं वे मुट्ठीभर मूढ़ी धक्का-मुक्की करतीं देह पर देह लदीं उपलाती हैं-मछलियाँ प्रसन्न होते हैं पोखरपति उनकी अहेरी आँखों में प्रतिबिम्बित हो उठता है

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हम छले गये

ज़िन्दगी तो त्रासदी हुई उन्हें मधुर गीत चाहिए! आँखों पर पट्टियाँ पड़ीं कोल्हू के बैल बने हम वंचना के वृत्त में फँसे खींच रहे बोझ

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