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होली (दोहा)
होली के त्यौहार की, पौराणिक पहचान। महा भक्त प्रह्लाद की, कथा उचित उनवान।। श्रीहरि का वह भक्त था, निर्मल और विशुद्ध। हिरण्यकश्यप हो गया, स्वयं
होली के त्यौहार की, पौराणिक पहचान। महा भक्त प्रह्लाद की, कथा उचित उनवान।। श्रीहरि का वह भक्त था, निर्मल और विशुद्ध। हिरण्यकश्यप हो गया, स्वयं
रजनीगंधा की महक, हृद में लगती आग। राधा, कान्हा के बिना, कैसे खेले फाग॥1॥ तन – मन में कान्हा बसा, मनहर लगता फाग। श्याम हृदय
जगजननी माँ पार्वती, शिव देखें अनिमेष। पावन परिणय हो गया, अद्भुत और विशेष।। भूत-प्रेत मिल साथ में, चले सभी बारात। मनभावन लगने लगी, त्रयोदशी की
सब गरीब धनवान हैं , सब धनवान गरीब । उल्टी पुलटी चीज़ सब , दुनिया बड़ी अजीब । उनकी हालत हो रही , अंतिम समय
होली तेरे गांव की , बड़ी रसीली यार ।गोरे गोरे अंग से , झर – झर झरे फुहार ।। देवर – भाभी साथ में ,
तुम वीणा तुम बांसुरी , तुम रसवंत सितार । तुम हिरदय की स्वामिनी , तुम मेरा गलहार । तुम नदिया रस की भरी , तुम
यौवन की रुत आ गई , रहिए ज़रा सचेत । फूलेंगे मन प्राण में , अब सरसों के खेत । अभी आप आज़ाद हो ,
नाचे दुनिया बावरी , समय बजाये बीन । बूढ़े घर में क़ैद हैं , बच्चे हुए मशीन । आंखें तेरी श्यामला , ज्यों काजल की
हम बैरागी हो गए , मत अब डोरे डाल । खारा पानी मन हुआ , नहीं गलेगी दाल । मुखड़ा उस मासूम का , जैसे
मेरे उनके प्रेम को, जाने नहीं हर कोय। समझेगा इस योग को, प्रेमी जिसका होय॥ मेरा उनका प्रेम क्या, अब चढता परवान। मैं सुख से