योग की मानव जीवन में आवश्यकता
संसार में सामान्य रूप से प्रवृत्ति देखी जाती है कि प्रत्येक प्राणी सुख प्राप्त करना चाहता है एवं दुःखों से बचना चाहता है। मानव भी
संसार में सामान्य रूप से प्रवृत्ति देखी जाती है कि प्रत्येक प्राणी सुख प्राप्त करना चाहता है एवं दुःखों से बचना चाहता है। मानव भी
पुरुषोत्तम राम, श्री कृष्ण की जन्मभूमि एवं गंगा, यमुना, सरस्वती की बहती धारा से पवित्र हमारा उत्तर प्रदेश भारत वर्ष का जनसंख्या की दृष्टि से
परिचयः- अनादिकाल से ही पुरूषवादी समाजिक व्यवस्था में स्त्री को दोयम दर्जा प्राप्त हैं। यूँ तो प्रकृति ने स्त्री-पुरूष को समान बनाया, परंतु पुरूषों ने
योग एक प्राचीन भारतीय विद्या है। इसका मूल स्रोत वेदों में प्राप्त होता है, यथा- योगेयोगे तवस्तरं[१], स धीनां योगमिन्वति[२] एवं युज्यमानो वैश्वदेवो युक्तः प्रजापतिर्विमुक्तः
जैसा कि हम सब जानते हैं कि एक नारी कई रिश्तों का निर्वाह करती है। पारिवारिक रिश्तों को छोड़कर यदि हम सामाजिक रिश्तों की बात
बात उस समय की है ,जब मैं पांचवी कक्षा में पढ़ती थी। बचपन से ही चॉक के प्रति मेरे मन में विशेष आकर्षण रहा है
मां मैं बाजार रंग लेने जा रही हूं अरे परी मत जा देख ना कितना हुडदंग हो रहा है होली का इस समय अकेले जाना
पात्र-1.मां 2. बेटा (घर का दृश्य है। समान बिखरा पड़ा है।एक महिला अपने घर में झाडू लगा रही है )
सदियों से चली आ रही पितृसत्ता के अंतर्गत स्त्री- जाति पुरुष के अधीन रही है। पुरुष ने सदैव स्त्री के जीवन से संबद्ध विभिन्न आयामों,
कोई भी उन्नत से उन्नत तकनीक शिक्षक की जगह नहीं ले सकती। शिक्षक का काम केवल पढ़ाना-लिखाना ही नहीं होता बल्कि बच्चे का चहुंमुखी विकास