और जीवन
ऐषणाओं के सघन घन और जीवन। आनुषांगिक भी न हो पाया अकिंचन और जीवन। शांत पानी इतने कंकड़। अंधड़ों की पकड़ में जड़, आत्मा ह्रासित
ऐषणाओं के सघन घन और जीवन। आनुषांगिक भी न हो पाया अकिंचन और जीवन। शांत पानी इतने कंकड़। अंधड़ों की पकड़ में जड़, आत्मा ह्रासित
पौरुषता हरियाली का नाम ही किसानी थी l आज मैं बूढ़ा बैल हूँ कभी जवानी थी ll निर्धनता घर में थी श्रम से उसे उबार
दिव्य मणि शोभित शुभी अभिसारिका सी। अवध की महानायिका परिचारिका सी।। भूमिजा का स्वयंवर पिनाक भंग, आ गयी थी देखने पितु मातु संग। गौरी पूजन
बाखब़र होके मगर सोता रहा। तमाम रात सितम होता रहा।। मजाल समंदर की कुछ भी नहीं, माझी ही कश्तियां डुबोता रहा।। ये कैसा मर्ज़ है
नैन नीर में मसि मिलाकर हमने लिख दी प्रिय को पाती। भावो को लिपिबद्ध सजाकर बैरंग भेजी प्रिय को पाती।। मन पक्षी विहरत अनन्त तक
एषणाओं की धरा पर पनपती मन मृग में तृष्णा। जीव को चौरासी घट पट तक घुमाती है मृगतृष्णा।। आशाओं की प्रबल सरिता प्रवाहित अविरल मनस
शाख से टूटा है, क्या जाने किधर जायेगा। हवा चली है तो कुछ जे़रो ज़बर जायेगा।। जिगर के खून से हमने लिखे हैं खत इतने,
अपरिछिन्न अलौकिक अविरल निश्छल सुसंस्कार कहां है। सदा से विलसित रहने वाली प्रेम सुधा रसधार कहां हैं। नव मालिका कली से भंवरा कहता है, सदा
क्या गुजरी थी दिल पर कैसे बताउँ यार। पीहर को जा रही मेरी पत्नी पहली बार।। मधुमास का मौसम था शादी मेरी हुई थी। पत्नी
जीवन पथ अति कठिन कंटक घनेरे। प्रेम रस का पान कर मन मधुप मेरे।। यह समूची सृष्टि ऐषणित तंत्र है, प्रेम ईशाकार परम स्वतंत्र है।