किसान दिवस
तुम लिख रहे हो, न उस किसान की महानता,जिसके खेत की फसल ,आप तक पहुंचते पहुंचतेजाति परिवर्तन कर लेती है ,अपना ईमान धर्म,सब बेंच देती
तुम लिख रहे हो, न उस किसान की महानता,जिसके खेत की फसल ,आप तक पहुंचते पहुंचतेजाति परिवर्तन कर लेती है ,अपना ईमान धर्म,सब बेंच देती
मैं एक मुट्ठी धूप लाया हूँ,चलो इस सर्द लम्हों में, थोड़ी तुम रख लो l मगर, तुम संभाल नहीं पाओगे,इसकी तपिश से झुलस जाओगे l
तुमने फिर से बना लिए नए किरदार,मुझे, मेरी तन्हाई, मेरी बेवफाई को lतुम्हारी,कलम लिखते लिखते दौड़ने लगी,कागज़ पर कुछ नई कहानी सजोने लगी lतुम्हारे,जज़्बातों ने
तीन ही होते हैं ,ज़िंदगी के प्राथमिक रंग lमाँ , पिता और परमात्मा lजैसे होता है रंगहीन जल,पर धारण रखे हुए है नीला रंग l
एक ख़त लिखना था,तुम्हारी यादों को lजो, भूल सी गयी,कई सालों से इस दिल का पता lऔर करके तन्हा,दे दी है इस दिल को सजा
जब पैदा हुआ था,पिता केचमड़े के जूतों में थी चमक lउसके जिस्म से आती थी ,ऐशों आराम वाली महक lमाँ रानी सी रहती थीं,पिता राजा
तुम थे,मैं था ।थोड़ा थोड़ा सा अहम था l“तुम” में “तुम” भरपूर था,और मुझमें “मैं” l मैं ऋणात्मक सा था,एक छोटी सी लकीर ,वहम के
तुम मिले ऐसे, कोई मिलता कहाँ ऐसे,जिन्दगी नाचती जैसे, धड़कनें गाती हो जैसे llबरसती बारिश की बूँदें, मयूर नाचता हो जैसे ,सूरज उगता हो जैसे,
बतियाती हैं अक्सर तुम्हारी यादें,कहती हैं, फिर इश्क़ करना है मुझे ll सोचता हूँ डरता हूँ फिर तन्हाईयों सेकैसे अब खुद से लड़ना है मुझे
कभी मिलो तुम,जहाँ पर “मैं” न हो lहो सिर्फ “मय” आंखो की,जहाँ शेह और मात की चाह न हो l कभी मिलो, सिर्फ मेरे होने