संजय श्रीवास्तव अवधी
संजय श्रीवास्तव अवधी

संजय श्रीवास्तव अवधी

प्रसिद्ध नाम-संजय अवधी, पिता-दिनेश चन्द्र श्रीवास्तव, लेखन विधा- गीत और कविता, प्रथम काव्य प्रस्तुति- ऑल इंडिया रेडियो, गीतकार के रूप में उपलब्धि- विश्व स्तरीय म्यूजिक कंपनी टी सीरीज के लिए गीत लेखन, प्रारंभिक लेखन- श्री महेश्वरी सेवक मासिक पत्रिका, प्रतिष्ठित समाचार-पत्रदैनिक जागरण से. विशेष उपलब्धि- रजत जयंती सम्मान अवध भारती सम्मान तथा अवधी तुलसी सम्मान 2021 अवध भारती संस्थान द्वारा प्राप्त एवं अन्य संस्थानों द्वारा सम्मानित. आने वाली प्रथम अवधी पुस्तक- 'भोली चिरैया' उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा. संस्थापक- अवध सीरीज अवधी लोककला विस्तार मंच लल्लू पुरवा,इटरौर. निर्माता निर्देशक- अवध सीरीज. उद्देश्य- विलुप्त होती अवधी संस्कृति, अवधी लोककला विरासत को ग्रामीण आयोजन के माध्यम से आगे बढ़ाना. पता-लल्लू पुरवा, इटरौर, मनकापुर, गोंडा,Copyright@संजय श्रीवास्तव अवधी/ इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |

धरती महरानी (अवधी कविता)

सावन मा धरती महरानी सजि धजि छम छम बाजत हीं राति गगन जब उवै अंजोरिया दुलहिन जयिसै लागत हीं कुलि वरि घनी हरियरी छायी नदिया

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अम्मा सिरका लिहिउ सजाय

गन्ना कै रस आवत होई डेउढी का महकावत होई लिहा गिलासी छोटका बबुआ गझिनै दहिउ मिलावत होई सुधि चैती बइसाख कै आवै दांत लड़कपन कै

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अम्मा हमार

गंउआ के खुशी खातिर डिउहार का मनाइन जब जब परी बिपतिया तब तब दिया जराइन अम्मा कै अपने जेतना बखान करी कम है उनहीं तौ

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न मिली अंगूठी(अवधी)

दुलहा माडौ से लउट परा जब जानिस अब न कार मिली न मिली अंगूठी हीरा कै न सिकडी रसरीदार मिली मान मिला सम्मान मिला कठरा

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बोल रहा इतिहास

चीखकर बोल रहा इतिहास तुम्हारे हाथों में भगवाधारी है भगवा की अब लाज तुम्हारे हाथों में बीत गया जो समय-समय से बुरी रात का सपना

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बखरी(अवधी कविता)

तावा मूंदा तव बहुत गवा बखरी अस आज उजार परी दमदार परोसी नाय भये अपनै कमजोर देवार परी अस रहा परानिम् मेल जोल कहियौ न

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बगियम् नवा बसंत(अवधी कविता)

दुलहिन अस धरती सजी भवा सीत कै अंत लयि पुरुवाई आयि गै बगियम् नवा बसंत बगियम् नवा बसंत लिखैं प्रिये प्रियेतम का पाती अउ महुआ

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आइस पाइस गुल्ली डंडा(अवधी कविता)

आइस पाइस गुल्ली डंडा गिट्टक अउर कब्बड्डी बाजी जीतै बदे लगी खुब बेरि बेरि हरबद्दी कहां दिन चला गवा ! बगिया बगियम् चलत रही दुपहरियम्

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