मुझे गांव में रहने दो अपने में ही सिमटने दो
छेड़ो ना मुझको तुम सब मिल गुमनाम सा जीवन जीने दो
मुझे गांव में रहने दो
गुमनामी का जीवन जीना हमको अच्छा लगता है
करो ना जगजाहिर मुझको अंतर्मुखी ही रहने दो
गांव छोड़कर शहर में जाऊं प्यार गांव का मैं ठुकराऊ
जिसमें बचपन पला है मेरा उसको कैसे भूल मैं जाऊं
प्यार गांव का बहुत ही अच्छा इस प्यार में मुझको जीने दो
मुझे गांव में रहने दो
गांव की गलियां शहर से अच्छी गांव की कलियां सुंदर है
गमले की अब चाह नहीं है क्यारी में ही रहने दो
प्रकृति प्रदत्त हवा जो मिलती उसी में सांसे लेने दो
खेती बाड़ी का काम करूं मैं धूप छांव मुझे सहने दो
मुझे गांव में रहने दो
हर मौसम कोकिल सा लगता ऋतु बसंत के जैसा दिखता
नहीं कमी कोई इसमें मुझे इस मौसम में रहने दो
छाया बिल्डिंग की नहीं चाहिए पेड़ की छांव में रहने दो
भीड़भाड़ से डर लगता है मुझे अकेले रहने दो
मुझे गांव में रहने दो
दीपक ही बन कर जीवन में उजियारा मैं करता रहूं
बैठ के गलियारों में हरदम राह प्रकाशित करता रहूं
लाइट नहीं बनाओ मुझको दीपक जैसे जलने दो
सिमट ना जाऊं छत के नीचे तारे मुझको गिनने दो
मुझे गांव में रहने दो
रचनाकार
Author
गिरिराज पांडे पुत्र श्री केशव दत्त पांडे एवं स्वर्गीय श्रीमती निर्मला पांडे ग्राम वीर मऊ पोस्ट पाइक नगर जिला प्रतापगढ़ जन्म तिथि 31 मई 1977 योग्यता परास्नातक हिंदी साहित्य एमडीपीजी कॉलेज प्रतापगढ़ प्राथमिक शिक्षा गांव के ही कालूराम इंटर कॉलेज शीतला गंज से ग्रहण की परास्नातक करने के बाद गांव में ही पिता जी की सेवा करते हुए पत्नी अनुपमा पुत्री सौम्या पुत्र सास्वत के साथ सुख पूर्वक जीवन यापन करते हुए व्यवसाय कर रहे हैं Copyright@गिरिराज पांडे/ इनकी रचनाओं की ज्ञानविविधा पर संकलन की अनुमति है | इनकी रचनाओं के अन्यत्र उपयोग से पूर्व इनकी अनुमति आवश्यक है |