मैं स्त्री पूरा जीवन किया समर्पित
फिर क्यों न लटकी मेरे नाम की तख़्ती
न माँ के घर पर न तथाकथित घर
हम स्त्रियाँ घर की लक्ष्मी कही जाती रहीं हैं
लेकिन कैसी विडंबना न कोई घर जो अपना हुआ
घरों के बाहर तख़्ती पर उन्हें जगह नहीं..
माँ से सुनती आई दूसरे घर जाना हैं
दूसरे घर आई तो सुना पराए घर की हैं
तो हैं कोई जवाब किसी के पास
कि मैं स्त्री कहाँ की हूँ
और क्यों नही टंगती तख़्ती मेरे नाम की?
जिम्मेदारियों का सब बहीखाता
मेरे नाम का घर के बाहर
नाम ससुर,पति,भाई और बाप का
जो वर्ष में दो बार कंजक कह
पैर छुते हैं बेटी के
अफसोस उन्हें ही परहेज तख़्ती पर
उनके नाम का कहते हैं
महिला पुरुषों के साथ कन्धा मिला रही हैं
तो फिर यहाँ क्यों उसको पहचान नहीं मिलती
हाँ होता हैं किसी किसी घर के बाहर
तख़्ती पर किसी महिला का नाम
पर क्या ये सोचनीय नहीं
आया हैं कुछ बदलाव
पर क्यों संख्या इतनी कम
क्यों न हम खुद से करें यह प्रश्न
कि क्या ये हमारे घरों की
हकीकत बयां नहीं हुई
आखिर क्यों होता आ रहा हैं ये सब
और अभी कब तक ,
आखिर क्यों प्रश्न मेरे मन के टंगे रहते हैं
मन पर मेरे तख़्ती के जैसे
बिना बदले वहीं के वहीं आखिर क्यों..?
तख़्ती तक नही पहुँच हुई मेरी
मैं भी परिवार का अहम हिस्सा हूँ
कब होगी “मंजु” तख़्ती पर..?
अपनी स्वयं पहचान पर…