अजब अजब सी रविश मिली है दुनिया के दीवारों पर
कभी तसव्वुर कभी खुशबुयें कभी अश्क़ रुख़सारों पर
आओ कुछ अल्फ़ाज़ बाँटलें कुछ तो शब्द सुनाई दें
ख़ामोशी का शोर बहुत है घर गलियों चौबारों पर
सारा दर्द चुराकर हमने एक पोशाक बनाई थी
आज वही पोशाक तैरती मिलती है आबशारों पर
बस एक सफा ही पलट के मैंने पुल जो तुम तक बांधे थे
उसके कुछ टुकड़े पाए हैं शाम ढले गलियारों पर
घाट छोड़कर माझी लौटा याद लिए एक माज़ी भी
घर जाने की बात छोड़ दी लहरों ने पतवारों पर
सरहद के काँटों पर शायद कोई हवा उलझ़ती है
ज़ख़्म लिए कोमल जिस्मों पर जा ठहरी तलवारों पर
सरहद के काँटों पर शायद कोई हवा उलझती है
कैसे सारा मुल्क बँट गया खबर छपी अखबारों पर
कितनी नज़्में कितनी ग़ज़लें कितनी और गवाही है
सरहद के उस पार हमारी लाश मिली कोहसारों पर
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