लाए उद्धव एक चिट्ठी श्री कृष्ण की,
गोपियों को लगा पत्रिका है प्रेम की ।
खोजने लगीं नाम उसमें अपना – अपना ,
सत्य जानकर टूट गया वो सपना ।।
सोचा था सब गोपियों ने,
लिखा होगा उसमें नाम हमारा ।
लिखा होगा उसने ,
जो है प्राणों से भी प्यारा ।।
चूम रही पत्रिका के लिखे हुए स्थान को ,
मानो चूम रही प्रियतम प्रिय प्राण को ।
गोपियां थी अनेक और पत्र एक,
करके उसके टूक अनेक ।
रही चूम और देख ।
लगा लिया हृदय और अधरो से
उस पत्रिका के टुकड़े को ,
मानो देख रही हो उसमे
साक्षात् कान्हा के मुखड़े को ।।
बह गया नयन नीर से
सब स्याही का रंग वो,
लगता मानो कान्हा ही अब संग हो ।
सींच दिया प्रेम लता को ,
नेत्रों के जल से ।
मानो प्रसन्न हुई पाकर ,
पत्रिका रूपी फल से ।।
नैना थे सजल
और पुलकित थे गात ।
मन ही मन कर रही,
अपने कान्हा से बात ।
बोल रही कि हे नाथ !
कब होगा हमारा फिर से साथ ,
आपके विरह में बिता रहीं हम
जैसे तैसे दिन और रात ।
धिक्कार ! उस क्षण के बाद ,
ऐसा दुखद समय आया ।
गोपियों के कानों ने उद्धव का ,
हृदय विदारक शब्द पाया ।
शब्द ये थे कि –
नहीं चिट्ठी में नाम किसी का ,
बिसराओ रूप सगुण कान्हा का
भजो निराकार रुप प्रभु का ।।