हर मंज़र आज़ार हुआ
दरवाज़ा दीवार हुआ बिन दस्तक बेज़ार हुआ
रिश्तों के सब झूठ खुल गए जब मोहसिन तलवार हुआ
लंबी चुप और दिल भी खाली, निस्बत की एक बंजर डाली
क़तरा क़तरा शाम ढली , हर ख्वाब यहाँ दुश्वार हुआ
हर दस्तक कुछ कहती है हर अहद मुंतज़िर थी शायद
वहशत हैरत और क़यामत इसका ही दरबार हुआ
हर आहट है ख़ौफ़ज़दा हर एक तसव्वुर घायल है
एहसास भी तो अब बरहम हैं जीवन ये दुश्वार हुआ
चेहरा चेहरा ज़र्द हुआ क़ातिल ही हमदर्द हुआ
ज़ख़्मों के इस शहर को देखा
हर मंज़र आज़ार हुआ
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