अँधेरा कमरे को लील रहा
प्रकाशदात्री पुस्तकें
अदृश्य हैं !
ढूँढता हूँ माचिस मुश्किल से
घिसता हूँ तीलियाँ कई बार
कोशिश बेकार
सर्द हो गयी है माचिस !
साँसों सेंकता हूँ उसे कुछ देर
घिसता हूँ फिर काठी
कि कमाल!
भक्क खिल जाता है प्रकाश !
ठंडी पड़ जाती है आग
जब माचिस की
उसे साँसों की आग
सुलगाती है!
सच ,कितनी आग है
हमारी साँसों में !
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