एक गाँव था, जहाँ एक मेहनती किसान, रामप्रसाद अपने चार बेटों के साथ रहता था। वह बचपन से अपने खेतों में पसीना बहाते हुए अपने परिवार का पेट पालता रहा। रामप्रसाद ने जीवन में एक ही सपना देखा था—अपने बेटों को पढ़ा-लिखा कर एक अच्छे मुकाम पर पहुँचाना, ताकि उनका भविष्य सुरक्षित हो। उसकी मेहनत रंग लाई, और तीन बेटे पढ़ाई में अच्छे निकले। बड़े बेटे सुरेश ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की, मंझला बेटा राकेश डॉक्टर बना और तीसरा बेटा मुकेश बैंकर बन गया। लेकिन सबसे छोटा बेटा, हरि, जिसने ठीक से पढ़ाई नहीं की, गाँव में ही रह गया।
हरि के पढ़ाई में मन न लगने के कारण रामप्रसाद हमेशा उसे “नालायक” कहता था। वह मानता था कि हरि का भविष्य अंधकारमय है, क्योंकि उसे न तो पढ़ाई में दिलचस्पी थी और न ही किसी सरकारी नौकरी में। तीन बड़े बेटे पढ़-लिखकर अपनी-अपनी ज़िंदगी में व्यस्त हो गए, शहरों में बस गए और वहीं शादी कर ली। वे कभी-कभार ही गाँव आते, वह भी त्योहारों के समय, और तब भी ज़्यादा समय शहर लौटने की ही बात करते रहते।
हरि हालांकि पिता के पास ही रहा। उसने खेती-बाड़ी का काम संभाला और माँ-बाप की सेवा करने में कोई कमी नहीं रखी। वह सुबह उठकर पिता के साथ खेतों में जाता, उनकी हर ज़रूरत का ध्यान रखता और जब भी पिता थकते, वह उन्हें आराम करने के लिए कहता। हरि के दिल में अपने पिता के लिए बेहद प्यार था, पर पिता को हमेशा लगता कि वह नालायक है, क्योंकि वह “कुछ नहीं बना”।
पिता की नजर में हरि बस एक ऐसा बेटा था, जिसने उनके सपनों को तोड़ा। जब भी रामप्रसाद अपने दोस्तों या रिश्तेदारों से मिलता, वह गर्व से अपने तीन बड़े बेटों के बारे में बताता—कैसे एक इंजीनियर, एक डॉक्टर और एक बैंकर बन गए हैं। लेकिन हरि का नाम आते ही उसका चेहरा उतर जाता। वह अक्सर कहता, “यह हरि, बस मेरे कंधों पर बोझ है। पढ़ाई में नालायक था, अब सिर्फ मेरे साथ घूमता है। बाकी तीनों बेटे बड़े आदमी बन गए, बस ये एक रह गया।”
हरि यह सब सुनता, लेकिन उसने कभी शिकायत नहीं की। वह मन ही मन जानता था कि पिता उससे खुश नहीं हैं, पर उसने कभी उनके प्रति अपना प्यार कम नहीं होने दिया। माँ उसे हमेशा दिलासा देती, “हरि, तू मत सोच, तेरा काम बहुत बड़ा है। तेरे पिता एक दिन जरूर समझेंगे कि असली सहारा कौन है।”
समय बीतता गया, रामप्रसाद बूढ़ा हो गया। खेतों में काम करना उसके लिए मुश्किल हो गया। उसकी तबीयत भी धीरे-धीरे बिगड़ने लगी। तब तीनों बड़े बेटे शहरों में व्यस्त थे, और फोन पर ही हालचाल पूछ लिया करते। लेकिन जब भी जरूरत पड़ी, हरि ने ही उनका ख्याल रखा—दवाइयाँ लाना, अस्पताल ले जाना, और घर के काम संभालना।
एक दिन रामप्रसाद की तबीयत अचानक से बहुत बिगड़ गई। डॉक्टर ने बताया कि अब ज्यादा समय नहीं बचा। यह सुनकर रामप्रसाद ने तीनों बेटों को बुलवाया। तीनों बेटे आए, लेकिन शहर में अपने-अपने कामों की व्यस्तता के कारण कुछ दिन बाद ही लौटने की बात करने लगे। सुरेश ने कहा, “पापा, हमें कंपनी में बहुत ज़रूरी काम है। हम दोबारा आ जाएंगे, आप चिंता न करें।”
राकेश और मुकेश ने भी कुछ ऐसी ही बातें कहीं। रामप्रसाद ने महसूस किया कि उसके बड़े बेटे, जिनपर वह गर्व करता था, अब उसके साथ नहीं रहना चाहते थे। वे कुछ दिनों के लिए आए, लेकिन फिर चले गए। तीनों ने अपने अपने बहाने बनाए और वापिस लौट गए। रामप्रसाद ने सोचा कि शायद अब वह अकेला रह जाएगा।
लेकिन हरि नहीं गया। उसने पिता की सेवा करने की ठानी। दिन-रात वह उनके पास रहा, उनके हर दर्द को समझा, उनके लिए खाना बनाया, और जब वे सोते, तो उनके सिर पर हाथ फेरता। रामप्रसाद ने हरि की यह सेवा देखी, लेकिन उसकी आँखों में अभी भी वह ‘नालायक’ शब्द अटका हुआ था। उसने कई बार कहा, “तू क्यों यहाँ रहकर अपना समय बर्बाद कर रहा है? तेरे पास क्या है? न कोई नौकरी, न कोई पढ़ाई।”
हरि सिर्फ मुस्कराता और कहता, “पिताजी, मेरे पास आप हैं। यही मेरे लिए सबसे बड़ी चीज़ है।”
रामप्रसाद ने पहली बार महसूस किया कि उसकी आँखें धोखा खा रही थीं। वह जिस ‘नालायक’ बेटे को जीवनभर तुच्छ समझता रहा, वही आज उसका असली सहारा था। तीनों बड़े बेटे, जिनपर उसने गर्व किया था, सिर्फ नाम और शोहरत की दुनिया में खो गए थे। वे अपने पिता की तकलीफें नहीं समझ पा रहे थे। वहीं हरि, जिसे उसने हमेशा अनदेखा किया, वही उसके जीवन के आखिरी दिनों में उसके साथ था।
रामप्रसाद की आँखों में आँसू आ गए। वह सोचने लगा कि उसने जीवनभर अपने सबसे छोटे बेटे को कितना कम आंका। जिस खेती के काम को वह बेकार समझता था, उसी से हरि ने उनका घर संभाला। जिस सेवा को वह नज़रअंदाज़ करता था, वही आज उसके जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई थी।
एक रात, रामप्रसाद ने हरि को अपने पास बुलाया और कांपते हुए हाथों से उसका हाथ पकड़ा। उसकी आँखों में आँसू थे, और वह बोले, “बेटा, मैं तुझसे माफी माँगता हूँ। मैंने तुझे कभी नहीं समझा। मुझे गर्व था कि मेरे तीन बेटे पढ़-लिख कर बड़े आदमी बने, लेकिन असली आदमी तू है, जो अपने पिता के साथ खड़ा रहा। मैंने तुझे नालायक कहा, लेकिन असली लायक तू ही निकला।”
हरि की आँखों में भी आँसू आ गए। उसने कहा, “पिताजी, आप ऐसा मत कहिए। मैं तो सिर्फ अपना फर्ज निभा रहा हूँ। आप मेरे लिए सब कुछ हैं।”
रामप्रसाद को आज यह समझ में आ गया था कि बेटों की असली काबिलियत डिग्रियों या नौकरियों में नहीं होती, बल्कि उनके दिल में अपने परिवार के प्रति प्यार और जिम्मेदारी में होती है। उसे आज गर्व महसूस हो रहा था कि उसका बेटा हरि उसके साथ था, जिसने न सिर्फ खेतों को संभाला, बल्कि उसके दिल को भी संभाला।
कुछ ही दिनों बाद रामप्रसाद की तबीयत और खराब हो गई और उन्होंने अंतिम सांस ली। उनके अंतिम संस्कार में तीनों बड़े बेटे भी आए, परंतु यह हरि ही था जिसने पिता की अंतिम विदाई की पूरी ज़िम्मेदारी उठाई। गाँव के लोग भी अब हरि की इज्जत करने लगे थे, क्योंकि उन्होंने देखा था कि वही असली सहारा था अपने पिता का।
पिता की मृत्यु के बाद तीनों बड़े बेटे अपने-अपने काम में वापस लौट गए, और हरि ने गाँव में रहकर अपने पिता की विरासत—उनकी जमीन और उनके खेतों को संभाला। वह अब और मेहनत से काम करता, क्योंकि उसे पता था कि उसके पिता को उस पर गर्व था।
यह कहानी हमें यह सिखाती है कि असली काबिलियत केवल पढ़ाई या बड़े पदों में नहीं होती, बल्कि इंसान के दिल में होती है। रिश्तों में प्यार, सेवा और जिम्मेदारी ही असली मूल्य हैं। हरि ने भले ही ज्यादा पढ़ाई नहीं की थी, लेकिन उसने अपने दिल की सच्चाई से अपने पिता का दिल जीत लिया, और यही उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी।