मिलता है, जब कोई भंवर किसी कलि से प्यार में
कली हिचकिचाती है, मगर
थी तो वो भी, कबसे, इस घड़ी के इंतजार में,
फिर खोलती है, पंखुड़ियों को, अपनी कली
और डूब जाता है, भंवर , उस रस भरे दरबार में,
फिर जाने कहाँ से, एक अजब की तेजी,
आ जाती है, भंवर के ख़ून के प्रवाह में,
लहरें उठती है, लहरें गिरती है,
बढ़ते हुए रफ्तार में,
फिर, मानो दूर पर्वतों से, गिरता है, झड़ना,
मिलने, प्रियतमा से प्यार में,
फिर ओढ़ के, कली,
शर्म की चादर,
छुपा लेती है, भंवर को,
अपने प्राकृतिक, उभार में।।
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