मैं कहीं पर रूक न पाया!
एक हृदय ले इस जगत में,
पथ पे अपना पग बढ़ाया।
राह में छाया सघन थी,
पंछी ने आवाज भी दी,
कर्ण गुंजा, एक शब्द आया;
है ,कहां मंज़िल तू पाया?
मैं कहीं पर रूक न पाया!
छांव मिलता उपवनों का,
गांव मिलता प्रियजनों का,
जिस जगह की प्रतिमा नयन में-
उस जहां से दूर आया।
मैं कहीं पर रूक न पाया!
भीड़ में बस चलरहा मैं,
शायद, खुद को छल रहा मैं,
मंजिलें तेरे लिए, मैं क्या कहूं;
किससे कहूं,क्या छोर आया।
मैं कहीं पर रूक न पाया!
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