जबसे हुए हैं शिक्षित, ताजा विचार आया
परिपाटिया भी हमको, दिखने लगी छलावा
माया का जाल ऐसा, कोई नहीं किसी का
हर आदमी अकेला, हर चेहरा अजनबी सा
बाहर ही दिखती खुशियां, अंदर खुशी नहीं है
रिश्तों में घुलती मिश्री, दिखती कहीं नहीं है
सब अपने में ही सिमटे, पड़ोस ना किसी का
कैसा है यह जमाना, रिश्ता भी स्वार्थ ही का
रिश्तों की अब यह खुशबू ,तो स्वार्थ से भरी है
मानवता अपनी मानव ने, खुद ही अब छली है
धैर्य सब्र ना ही, अब सहनशीलता है
सबके दिलों में अब तो, बस जोश ही भरा है
डूबे हैं आंसुओं में, हर ओर है उदासी
दहशत भरी है सब में, कोई नहीं है बाकी
गाड़ी है घर है बंगला, कोई कमी नहीं है
सब कुछ भरा पड़ा पर, दिल में सुकू नहीं है
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